श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ॥17॥
उनमें नित्ययुक्त और एक (मुझमें) भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है; क्योंकि मैं उसका अत्यन्र्त प्रिय हूँ और वह मेरा प्रिय है।। 17।।
तेषां ज्ञानी विशिष्यते, कुतः नित्ययुक्त एकभक्तिः इति च। तस्य हि मदेक प्राप्यस्य मया योगो नित्यः। इतरयोस्तु यावत्स्वाभिलषितप्राप्तिं मया योगः। तथा ज्ञानिनो मयि एकस्मिन् एव भक्तिः, इतरयोः तु स्वाभिलषिते तत्साधनत्वेन मयि च। अतः स एव विशिष्यते।
उन चारों में ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह नित्ययुक्त है और एक मुझमें ही भक्तिवाला है। अतः केवल मुझ एक को प्राप्य समझने वाले उस ज्ञानी का मेरे साथ नित्य संयोग रहता है। अन्य दोका तो जब तक अपना इच्छित विषय नहीं मिल जाता तभी तक मुझ में संयोग रहता है। तथा ज्ञानी की तो एकमात्र मुझमें ही भक्ति होती है और दूसरे दोनों की अपने इच्छित विषयों में और उनका साधनरूप समझकर मुझमें भी (भक्ति होती है); इसलिये वही (ज्ञानी ही) श्रेष्ठ है।
किं च प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् अहम्-अत्र अत्यर्थशब्दो अभिधेय वचनः; ज्ञानिनः अहं यथा प्रियः तथा मया सर्वज्ञेन सर्वशक्तिना अपि अभिधातुं न शक्यते इत्यर्थः; प्रियत्वस्य इयत्तारहितत्त्वात्। यथा ज्ञानिनाम् अग्रेसरस्य प्रह्णादस्य- ‘स त्वासक्तमतिः कृष्णे दश्यमानो महोरगैः। न विवेदात्मनो गात्रं तत्स्मृत्या ह्लादसंस्थितः’ [1] इति सः अपि तथा एव मम प्रियः।। 17।।
इसके सिवा, मैं ज्ञानी को अत्यन्त प्रिय होता हूँ। इस श्लोक में ‘अत्यर्थ’ शब्द अनिर्वचनीय भाव का द्योतक है। अभिप्राय यह कि मैं ज्ञानी को कैसा प्रिय हूँ, इसको मैं सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होने पर भी नहीं बतला सकता। क्योंकि उसके प्रियत्व की कोई इयत्ता (निश्चित मात्रा) नहीं होती। जैसे कि ज्ञानियों में अग्रगण्य प्रह्लाद के प्रेम के विषय में कहा है- ‘वह श्रीकृष्ण में आसक्तबुद्धि और उनकी स्मृति के आह्लाद में तन्मय होने के कारण महान् सर्पों के द्वारा काटे जाने पर भी अपने शरीर की वेदना को नहीं जान सका।’ ऐसा ज्ञानी भक्त भी मुझे वैसा ही प्रिय होता है।। 17।।
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