श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥16॥
भरतश्रेष्ठ (अर्जुन)! आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी- ये चार प्रकार के पुण्यकर्मा मनुष्य मुझको भजते हैं।। 16।।
स्कृतिनः पुण्यकर्माणो मां शरणम् उपगम्य माम् एव भजन्ते। ते च सुकृततारम्येन चतुर्विधाः, सुकृतगरीयस्त्वेन प्रपप्तिवैशेष्याद् उत्तरोत्तराधिकतमाः भवन्ति।
श्रेष्ठ कर्म करने वाले पुण्यकर्मा मनुष्य मेरी शरण ग्रहण करके केवल मुझको ही भजते हैं। वे भी पुण्यकर्मों की न्यूनाधिकता के कारण चार प्रकार के होते हैं- पुण्यकर्म की अधिकता से शरणागति में भेद होने के कारण क्रमशः एक-से-एक बढ़कर होते हैं।
आर्त्तः प्रतिष्ठाहीनो भ्रष्टैश्वर्यः पुनस्तत्प्राप्तिकामः। अर्थार्थी अप्राप्तैश्वर्य तया ऐश्वर्यकाम: तयो: मुखभेदमात्रम्, ऐश्वर्यविषयतया ऐक्वाद् एक एव अधिकारः।
जो प्रतिष्ठा से हीन हो गया है और जिसका ऐश्वर्य भ्रष्ट हो गया है इसलिये जो फिर से उसको प्राप्त करना चाहता है, वह ‘आर्त’ है। जिसको पहले से ऐश्वर्य प्राप्त नहीं है, अतः जो ऐश्वर्य चाहता है, वह ‘अथार्थी’ है। आर्त और अर्थार्थी में नाममात्र का भेद है, ऐश्वर्य की इच्छा के नाते दोनों की एकता होने से दोनों का एक ही अधिकार है।
जिज्ञासुः प्रकृतिवियुक्तात्म स्वरूपावाप्तीच्छृः ज्ञानम् एव अस्य स्वरूपम् इति जिज्ञासुः इति उक्तम्। ज्ञानी च ‘इतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्’ (7/5) इत्यादिना अभिहितभगवच्छेषतैकरसात्मस्वरूपवित् प्रकृतिवियुक्तकेवलात्मनि अपर्यवस्यन् भगवन्तं प्रेप्सुः भगवन्तं परमप्राप्यं मन्वानः।। 16।।
प्रकृति-संसर्ग से रहित आत्मस्वरूप को प्राप्त करने की इच्छा वाला जिज्ञासु है। ज्ञान ही इसका (आत्मा का) स्वरूप है, इसलिये जानने की इच्छा वाले को ‘जिज्ञासु’ कहा गया है।
इन तीनों से भिन्न जो ‘इतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्’ इत्यादि श्लोक के द्वारा बतलायी हुई एकमात्र भगवान् की शेषता (अधीनता) ही जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मा के स्वरूप को जानने वाला है तथा केवल प्रकति संसर्ग से रहित आत्मा को ही परम प्राप्य न मानकर भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा वाला और भगवान् को ही परम प्राप्य समझने वाला है, वह ‘ज्ञानी’ है।। 16।।
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