श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 176

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य

मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥14॥

यह मेरी गुणमयी दैवी माया निःसन्देह दुस्तर है (पर) जो एकमात्र मेरी शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे इस माया से तर जाते हैं।। 14।।

मम एषा गुणमयी सत्त्वरजस्तमोमयी माया यस्माद् दैवी देवेन क्रीडा प्रवृत्तेन मया एव निर्मिता तस्मात्सर्वेः दुरत्यया दुरतिक्रमा।

जिससे कि यह मेरी गुणमयी सत्त्व, रज और तमोमयी माया दैवी है- लीला के लिये प्रवृत्त मुझ परमदेव के द्वारा निर्मित है, इसलिये यह सभी से दुस्तर है अर्थात् इसको पार करना नितान्त ही कठिन है।

अस्याः मायाशब्दवाच्यत्वम् आसुर राक्षसास्त्रादीनाम् इव विचित्रकार्य करत्वेन, यथा च ‘ततो भगवता तस्य रक्षार्थ चक्रमुत्तमम्। आजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदर्शनम्।। तेन मायासहस्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना। बालस्य रक्षता देहमेकैकांशेन सूदितम्।।’ [1] इत्यादौ,

असुर और राक्षसों के अस्त्रादि की भाँति विचित्र कार्य करने वाली होने के कारण इसका नाम माया है। जैसे कि ‘उसके बाद उस बालक की रक्षा के लिये भगवान की आज्ञा पाकर प्रज्वलित अग्नि की लपटों के द्वारा देदीप्यमान सर्वोत्तम सुदर्शनचक्र वहाँ आ पहुँचा। उस शीघ्रगामी चक्र ने बालक के शरीर की रक्षा में संलग्न हो शम्बरासुर की उस सहस्रों प्रकार की माया को टुकड़े टुकड़े काटकर नष्ट कर दिया।’ इत्यादि।

अतो मायाशब्दो न मिथ्यार्थवाची। ऐन्द्रजालिकादिषु अपि केनचिद् मन्त्रौषधादिना मिथ्यार्थ विषयायाः पारमार्थिक्या एव बुद्धेः उत्पादकत्वेन मायावी इति प्रयोगः। तथा मन्त्रोषधादिः एव च तत्र माया, सर्वप्रयोगेषु अनुगतस्य एकस्य एव शब्दार्थत्वात्। तत्र मिथ्यार्थेषु मायाशब्द प्रयोगो माया कार्यबुद्धिविषयत्वेन औपचारिकः, ‘मंचाः क्रोशन्ति’ इतिवत्।

अतएव ‘माया’ शब्द मिथ्या वस्तु का वाचक नहीं है। बाजीगर आदि को भी किसी मन्त्र या औषध के द्वारा मिथ्या वस्तु के विषय में सत्यता-बुद्धि उत्पन्न कर देने वाला होने के कारण ही ‘मायावी’ कहते हैं। वस्तुतः वहाँ मन्त्र और औषध आदि ही माया है। सब प्रयोगों में अनुगत एक ही वस्तु को (माया) शब्द का अर्थ माना जा सकता है। अतः मिथ्या वस्तुओं में जो माया शब्द का प्रयोग है, वह मायाजनित बुद्धि का विषय होने के कारण औपचारिक है। जैसे कि ‘मचानें चिल्ला रही हैं’ यह प्रयोग है।

एषा गुणमयी पारमार्थिकी भगवन्माया एव ‘मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्’ [2] इत्यादिषु अभिधीयते।

यह गुणमयी सत्य वस्तु भगवान् की माया ही ‘प्रकृति को तो माया और महेश्वर को मायावती समझ।’ इत्यादि श्रुतियों में कही गयी है।

अस्याः कार्य भगवत्स्वरूप तिरोधानं स्वस्वरूपभोग्यत्वबुद्धिः च, अतो भगवन्मायया मोहितं सर्व जगद् भगवन्तम् अनवधिकातिशयानन्द स्वरूपं न अभिजानाति।

भगवान् के स्वरूप को छिपा देना और अपने स्वरूप में भोग्यबुद्धि करा देना, इस माया का कार्य है। इसलिये भगवान् की माया से मोहित हुआ सब जगत् असीम अतिशय आनन्नदस्वरूप भगवान् को नहीं जानता।

मायाविमोचनोपायम् आह परम् एव सत्य संकल्प परमकारुणिकम् अनालोचित विशेषाशेषलोकशरण्यं ये शरणं प्रपद्यन्ते ते एतां मदीयां गुणमयीं मायां तरन्ति। मायाम् उत्सृज्य माम् एव उपासत इत्यर्थः।। 14।।

माया से छूटने का उपाय बतलाते हैं-जो मनुष्य केवलमात्र सत्य संकल्प, परमदयालु और बिना किसी छोटे-बड़े की भेददृष्टि के सबको शरण देने वाले मुझ परमेश्वर की ही शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे मेरी इस गुणमयी माया से तर जाते हैं। अभिप्राय यह है कि वे माया का त्याग करके मेरी ही उपासना करते हैं।। 14।।

किमिति भगवदुपासनापादिनीं भगवत्प्रपत्तिं सर्वे न कुर्वन्ति? इत्यत्र आह-

तब फिर सब मनुष्य भगवान् की उपासना का सम्पादन करने वाली भगवत्प्रपत्ति (शरणागति)-को क्यों ग्रहण नहीं करते? इस पर कहते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वि0 पु0 1/19/19-20
  2. श्वेता0 4/10

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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