श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: ।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ॥8॥
पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥9॥
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥10॥
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥11॥
अर्जुन! जलों में मैं रस, चन्द्रमा और सूर्य में प्रभा, सब वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्त्व हूँ। पृथ्वी में पवित्र गन्ध, अग्नि में तेज, सब प्राणियों में जीवनी शक्ति और तपस्वियों में तप मैं हूँ। अर्जुन! समस्त प्राणियों का सनातन बीज तू मुझको जान! बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज मैं हूँ। भरतश्रेष्ठ! बलवानों का कामराग से सर्वथा रहित बल और प्राणियों में धर्म से अविरुद्ध (धर्मसम्मत) काम मैं हूँ।। 8-11।।
एते सर्वे विलक्षणा भावा मत्त एव उत्पन्नाः मच्छेषभूता मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिताः, अतः तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थितः।। 8-11 ।।
ये सभी विलक्षण भाव मुझसे ही उत्पन्न हैं, मेरे ही शेषभूत (अधीन) हैं और मेरे शरीर होने से मुझमें ही स्थित हैं; अतएव उन-उन रूपों मैं ही स्थित हो रहा हूँ ।। 8-11 ।।
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥12॥
और जो भी ये सात्त्विक, राजस तथा तामस भाव हैं, वे मुझसे ही उत्पन्न हैं, तू उनको ऐसा समझ। परन्तु मैं उनमें नहीं हूँ, वे मुझमें हैं।। 12।।
किं विशिष्य अभिधीयते, सात्त्विकाः राजसाः तामसाः च जगति भोग्यत्वेन देहत्वेन इन्द्रियत्वेन तत्तद्धेतुत्वेन च अवस्थिता ये भावाः तान् सर्वान् मत्त एव उत्पन्नान् विद्धि ते मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिता इति च न तु अहं तेषु न अहं कदाचिद् अपि तदायत्तस्थितिः, अन्यत्र आत्मा यत्तस्थितित्वे अपि शरीरस्य शरीरेण आत्मनः स्थितौ अपि उपकारो विद्यते, मम तु तैः न कश्चित् तथाविध उपकारः केवलं लीला एव प्रयोजनम् इत्यर्थः।। 12।।
विशेष क्या कहा जाय, जगत् में भोग्यरूप से, शरीर रूप से, इन्द्रियरूप से और उनके कारणरूप से स्थित जो भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव हैं, उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न हुए समझ। और साथ ही यह भी समझ कि वे मेरे शरीर रूप होने के कारण मुझमें ही स्थित हैं, किन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ अर्थात् किसी काल में भी मैं उनके सहारे पर स्थित नहीं हूँ। अभिप्राय यह है कि अन्यत्र (अन्य जीवों में) शरीर की स्थिति आत्मा के अधीन होने पर भी शरीर से आत्मा की स्थिति में भी कुछ उपकार होता है; परन्तु मेरा उन (जीवों से या शरीर इन्द्रियादि)- से वैसा कोई भी उपकार नहीं होता। मेरा प्रयोजन तो केवल लीला ही है।। 12।।
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