श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
पुनश्च-
‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्वतस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।।’-[1]
इति विशेषणात् परेण आत्मना वरणीयताहेतुभूतं स्मर्यमाणविषयस्य अत्यर्थप्रियत्वेन स्वयम् अपि अत्यर्थ प्रियरूपं स्मृतिसन्तानम् एव उपासनशब्दवाच्यम् इति हि निश्चीयते, तद् एव भक्तिः इत्युच्यते ‘स्नेहपूर्वमनुध्यानं भक्तिरित्युच्यते बुधैः’ [2]इति वचनात्। ‘अतस्तमेवं विद्वानमृत इह भवति’ [3] ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’[4] ‘नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं द्रष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।’ [5]इत्यनयोः एकार्थत्वं सिद्धं भवति।
इसके सिवा-‘यह आत्मा ने तो प्रवचन से ही प्राप्त हो सकता है, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही। यह जिसको वरण कर लेता है, उसी को मिलता है- उसी के लिये यह परमात्मा अपना रूप प्रकट कर देता है।’ इस विशेषण से भी यह निश्चय होता है कि परमपुरुष के द्वारा वरण किये जाने योग्य बनने का जो कारण है और स्मरण किया जाने वाला विषय अत्यन्त प्रिय होने से जो स्वयं भी अत्यन्त प्रियरूप है, ऐसे चिन्तन के प्रवाह को ही उपासना कहा गया है। उसी को ‘भक्ति’ कहते हैं। यही बात ‘स्नेहपूर्वक बार-बार ध्यान करने को ही ज्ञानीजन भक्ति कहते हैं’ इस वचन से कही गयी है। ‘ उसी को इस प्रकार जानने वाला- विद्वान् यहाँ अर्मत हो जाता है’ ‘परम पुरुष की प्राप्ति के लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं दीखता’ इस वाक्य की और ‘नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवंविधो द्रष्टं दृष्टवानसि मां यथा।। भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।’ इस वचनों की एकार्थता ऐसा मानने से ही सिद्ध होती है।
तत्र सप्तमे तावद् उपास्यभूतपरमपुरुषस्वरूपयाथात्म्यं प्रकृत्या तत्तिरोधानं तन्निवृत्तये भगवत्प्रपत्तिः उपासकविधाभेदो ज्ञानिनः श्रैष्ठयं चोच्यते-
मध्यम षट्क के अन्तर्गत इस सातवें अध्याय में उपास्यरूप परमपुरुष के स्वरूप का यथार्थ तत्त्व; (जीवों के लिये) प्रकृति के आवरण से उसका ढका जाना, और उस आवरण की निवृत्ति के लिये भगवान् की शरणा-गति, उपासकों के प्रकार-भेद और उनमें ज्ञानी की श्रेष्ठता का वर्णन किया जाता है-
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