श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 166

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय

योगिनाम् इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी। सर्वभूतस्थम् इत्यादिना चतुर्विधा योगिनः प्रतिपादिताः, तेषु अनन्तर्गतत्त्वाद् वक्ष्यमाणस्य योगिनः, न निर्धारणे षष्ठी सम्भवति।

‘योगिनाम्’ इस पद में पञ्चमी विभक्ति के अर्थ में ही षष्ठी विभक्ति है। ‘सर्वभूतस्थम्’ इत्यादि श्लोकों में [1]जिन चार प्रकार के योगियों का प्रतिपादन किया गया है, यह इस श्लोक में कहा जाने वाले योगी उनके अन्तर्गत नहीं है। अतएव यहाँ निर्धारण के अर्थ में षष्ठी विभक्ति नहीं हो सकती।

अपि सर्वेषाम् इति सर्वशब्द निर्दिष्टाः तपस्विप्रभृतयः, तत्र अपि उक्तेन न्यायेन पञ्चम्यर्थो ग्रहीतव्यः, योगिभ्यः अपि सर्वेभ्यो वक्ष्यमाणो योगी युक्ततमः, तदपेक्षया अवरत्वे तपस्विप्रभृतीनां योगिनां च न कश्चिद् विशेष इत्यर्थः। मेर्वपेक्षया सर्षपाणाम् इव यद्यपि सर्षपेषु अन्योन्यन्यूनाधिकभावो विद्यते, तथापि मेर्वपेक्षया अवरत्वनिर्देशः समानः।

‘अपि सर्वेषाम्’ इस प्रकार ‘सर्व’ शब्द से तपस्वी आदि का निर्देश है। वहाँ भी उपर्युक्त न्याय से पञ्चमी का अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये। अभिप्राय यह है कि योगियों की और अन्य सब तपस्वी आदि की अपेक्षा भी इस श्लोक में कहा जाने वाला योगी युक्ततम (अत्यन्त श्रेष्ठ) है। उसकी अपेक्षा निम्नश्रेणी के होने में तपस्वी आदि कों का और योगियों का कोई प्रभेद उसी प्रकार नहीं है जैसे मेरु की तुलना में सरसों के दानों का। यद्यपि सरसों के दानों में परस्पर छोटे-बड़े का भेद है तथापि मेरु की अपेक्षा उनको छोटा बतलाना सबके लिये समान है।

मत्प्रियत्वातिरेकेण अनन्य साधारणस्वभावतया मद्गतेन अन्तरात्मना मनसा बाह्याभ्यन्तरसकलवृत्तिविशेषाश्रयभूतं मनो हि अन्तरात्मा, अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मया विना स्वधारणालाभात् मद्गतेन मनसा श्रद्धावान् अत्यर्थ मत्प्रियत्वेन क्षणमात्रवियोगासहतया मत्प्राप्तिप्रवृत्तौ त्वरावान् यो मां भजते;

मेरे प्रेम की अधिकता के कारण जिसका स्वभाव साधारण मनुष्यों से सर्वथा विलक्षण हो गया है, इसलिये जो मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से- यहाँ बाहर-भीतर की समस्त वृत्तियों का विशेष रूप से आश्रयभूत मन ही अन्तरात्मा है, ऐसे मन से जो मुझे भजता है अर्थात् मेरा अत्यन्त प्रेमी होने के कारण जो मेरे बिना अपना जीवन धारण करने में भी असमर्थ है इसलिये मुझमें लगे हुए मन से मुझे भजता है तथा जो श्रद्धावान् भक्त मेरा अत्यन्त प्रेमी होने के कारण मेरा क्षणभर का भी वियोग नहीं सह सकता, अतएव मेरी प्राप्ति की साधना में अत्यन्त उतावला होकर जो मुझे भजता है (वह मेरे मत में श्रेष्ठतम है)।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोक 29 से 32 तक

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
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अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
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