श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
तपस्विभ्योऽधिको योगीज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक: ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥46॥
योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ है और कर्मियों भी श्रेष्ठ है, इसलिये अर्जुन! तू योगी हो।। 46।।
केवलतपोभिः यः पुरुषार्थः साध्यते आत्मज्ञानव्यतिरिक्तैः ज्ञानैः च यः, यः च केवलैः अश्वमेधादिभिः कर्मभिः, तेभ्यः सर्वेभ्यः अधिकपुरुषार्थसाधनत्वात् योगस्य तपस्विभ्यः ज्ञानिभ्यः कर्मिभ्यश्च अधिको योगी तस्माद् योगी भव अर्जुन।।46।।
जो पुरुषार्थ केवल तपों से, जो आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञानों से और जो केवल अश्वमेधादि कर्मों से सिद्ध किया जाता है, उन सबसे अधिक पुरुषार्थ का साधन योग है, इसलिये तपस्वियों से, ज्ञानियों से और कर्मियों से योगी श्रेष्ठ है। अतएव अर्जुन! तू योगी बन।। 46।।
तद् एवं परविद्यागंभूतं प्रजापति वाक्योदितं प्रत्यगात्मदर्शनम् उक्तम्। अथ परविद्यां प्रस्तौति-
इस प्रकार यहाँ उपनिषदों में प्रजापति के वाक्य द्वारा प्रतिपादित पराविद्या का अंगभूत प्रत्यगात्मदर्शन (जीवात्मा के स्वरूप का ज्ञान) बतलाया गया। अब पराविद्या की प्रस्तावना करते हैं-
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ॥47॥
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ।
सब योगियों से भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझ में लगे हुए मनसे मुझको भजता है, वह मेरे मत में श्रेष्ठतम है।। 47।।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयम
योगो नाम षष्ठोऽध्यायः।।6।।
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