श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 164

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय

पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते ह्यवशोऽपि स: ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥44॥

वह पुरुष अवश होने पर भी उस पूर्वकृत अभ्यास के द्वारा निस्सन्देह (उसी योग की ओर) खींचा जाता है। (वही नहीं) योग का जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म (प्रकृति)- को लाँघ जाता है।। 44।।

तेन पूर्वाभ्यासेन पूर्वेण योगविषयेण अभ्यासेन सः योगभ्रष्टो हि अवशः अपि योगे एव ह्रियते, प्रसिद्धं हि एतद् योगमाहात्म्यम् इत्म्यम् इत्यर्थः। अप्रवृत्तयोगो योगजिज्ञासुः अपि ततः चलितमानसः पुनरपि ताम् एव जिज्ञासां प्राप्य कर्मयोगादिकं योगम् अनुष्ठाय शब्द ब्रह्म अतिवर्तते।

वह योगभ्रष्ट पुरुष परवश होने पर भी उस पूर्वाभ्यास से-पूर्वकृत योगविषयक अभ्यास के प्रभाव से योग में ही आकृष्ट हो जाता है। ‘हि’ का तात्पर्य यह है कि यह योग का माहात्म्य प्रसिद्ध ही है। जो योग में प्रवृत्त नहीं हुआ है, केवल योग का जिज्ञासु ही है, ऐसा उस योग जिज्ञासा से विचलित मन वाला साधक भी पुनः उसी जिज्ञासा को पाकर कर्मयोगादि किसी योग का अनुष्ठान करके शब्द ब्रह्म से पार हो जाता है।

शब्दब्रह्म देवमनुष्यपृथिव्यन्तरिक्ष स्वर्गादिशब्दाभिलापयोग्यं ब्रह्म प्रकृतिः, प्रकृतिसम्बन्धाद् विमुक्तो देवमनुष्यादिशब्दाभिलापानर्हं ज्ञानानन्दैकतानम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थः।। 44।।

अभिप्राय यह है कि देव, मनुष्य, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्गादि शब्द से वर्णन किये जाने योग्य ब्रह्मरूप प्रकृति का नाम ‘शब्दब्रह्म’ है। (वह पुरुष) इस प्रकृति के सम्बन्ध से मुक्त होकर देव-मनुष्यादि शब्दों से कहने में न आने वाले एकरस-ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा को प्राप्त हो जाता है।। 44।।

यत एवं योगमाहात्म्यम्; ततः-

चूँकि योग का माहात्मय ऐसा है; इसलिये-

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष: ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥45॥

अनेक जन्मों के अभ्यास से संसिद्ध और सम्पूर्ण पापों से विशुद्ध हुआ योगी (इस जन्म में) प्रयत्नपूर्वक साधन करके पुनः परमगति को प्राप्त हो जाता है।। 45।।

अनेकजन्मार्जितपुण्यसञ्चयैः संशुद्धकिल्बिषः संसिद्धः सञ्जातः प्रयत्नाद् यतमानः तु योगी चलितः अपि पुनः परां गतिं याति एव।। 45।।

अनेक जन्मों में उपार्जित पुण्य के सञ्चय से जिसके सारे पार धुल चुके हैं, ऐसा संसिद्ध (शुद्ध) होकर जन्मा हुआ और प्रयत्नपूर्वक साधन करने वाला योगी (पूर्वजन्म में) योग से विचलित होकर भी (इस जन्म में) पुनः परमगति को प्राप्त हो ही जाता है।।45।।

अतिशयितवपुरुषार्थनिष्ठतया योगिनः सर्वस्माद् आधिक्यम् आह-

योगी की पुरुषार्थनिष्ठा अत्यन्त बढ़ी हुई होने के कारण, अन्य सबकी अपेक्षा उसकी श्रेष्ठता बतलाते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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