श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ॥32॥
अर्जुन! जो योगी आत्मा की उपमा से सर्वत्र सुख अथवा दुःख को (अपने ही सदृश) समान देखता है वह योगी परम (योग की अन्तिम सीमा को प्राप्त) माना गया है।। 32।।
आत्मनः च अन्येषां च आत्मनाम् असंकुचितज्ञानैकाकारतया औपम्येन स्वात्मनि च अन्येषु सर्वत्र वर्तमानं पुत्र जन्मादिरूपं सुखं तन्मरणादिरूपं च दुःखम् असम्बन्धसाम्यात् समं यः पश्यति परपुत्रजन्ममरणादिसमं स्वपुत्रजन्ममरणादिकं यः पश्यति इत्यर्थः। स योगी परमयोगकाष्ठां गतो मतः।। 32।।
जो योगी अपने तथा दूसरों के आत्माओं में विस्तृत ज्ञान की एकाकारता के कारण समानता रहने से अपने आत्मा में और दूसरों में सर्वत्र होने वाले पुत्र-जन्मादिरूप सुखों को और उनके मरण आदिरूप दुःखों को समान रूप से सर्वत्र सम्बन्ध विशेष का अभाव अनुभव करते हुए सम देखता है- अर्थात् जो दूसरों के पुत्र-जन्म-मरणादि के समान ही अपने पुत्र-जन्म-मरणादि को देखता है, वह योगी योग की पराकाष्ठा (अन्तिम सीमा)- पर पहुँचा हुआ माना जाता है।। 32।।
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥33॥
अर्जुन बोले- मधुसूदन! यह जो योग समतारूप से आपके द्वारा कहा गया है, मैं (अपने मन की) चंचलता के कारण इस योग की स्थिर स्थिति नहीं देख रहा हूँ।। 33।।
यः अयं देवमनुष्यादिभेदेन जीवेश्वरभेदेन च अत्यन्तभिन्नतया एतावन्तं कालम् अनुभूतेषु सर्वेषु आत्मसु ज्ञानैकाकारतया परस्पर साम्येन अकर्मवश्यतया च ईश्वर साम्येन सर्वत्र समदर्शनरूपो योगः त्वया उक्तः, एतस्य योगस्य स्थिरां स्थितिं न पश्यामि मनसः चंचलत्वात् ।। 33।।
देव-मनुष्यादि के भेद से और जीव ईश्वर के भेद से स्थित, आज तक अत्यन्त भिन्न भाव से अनुभव किये हुए समस्त जीवात्माओं में एकमात्र ज्ञान ही सबका आकार है इस नाते परस्पर की समानता से तथा कर्म के वशीभूत न होने के नाते ईश्वर की समानता से सर्वत्र समदर्शनरूप जो यह योग आपने बतलाया, इस योग की मैं मन की चंचलता के कारण स्थिर स्थिति नहीं देख रहा हूँ।। 33।।
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