श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 155

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्माभूतमकल्मषम् ॥27॥

इस प्रशान्त मन, रजोगुणरहित, निष्पाप और ब्रह्मरूप योगी को निस्सन्देह उत्तम सुख मिलता है।। 27।।

प्रशान्तमनसम् आत्मनि निश्चल मनसम् आत्मन्यस्तमनसं तत एव हेतोः दग्धाशेषकल्मषं तत एव शान्तरजसं विनष्टरजोगुणं तत एव ब्रह्मभूंत स्वस्वरूपेणावस्थितम् एनं योगिनम् आत्मानुभवरूपम् उत्तमं सुखम् उपैति, हि इति हेतौ, उत्तमसुख रूपम् उपैति इत्यर्थः ।। 27।।

जिसका मन प्रशान्त है- आत्मा में ही निश्चल है अर्थात् आत्मा में ही लीन हो गया है, इसी से जिसके समस्त पाप भस्म हो चुके हैं, इसी कारण जिसका रज शान्त-रजोगुण नष्ट हो चुका है, और इससे जो ब्रह्मीभूत हो गया है- अपने स्वरूप में स्थित हो चुका है, उस योगी को आत्मानुभवरूप उत्तम सुख मिलता है अर्थात् उत्तम सुखरूप आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। यहाँ ‘हि’ शब्द हेतु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।। 27।।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष: ।
सुखेन ब्रह्मासंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥28॥

(वह) पापरहित योगी इस प्रकार मन को सदा (आत्मा में) लगाता हुआ ब्रह्मानुभवरूप अपरिमित सुख को भोगता है।। 28।।

एवम् उक्तप्रकारेण आत्मानं युञ्जन् तेन एव विगतप्राचीनसमस्तकल्मषः ब्रह्मसंस्पर्श ब्रह्मानुभवरूपं सुखम् अत्यन्तम् अपरिमितं सुखेन अनायासेन सदा अश्नुते।। 28।।

इस तरह पूर्वोक्त प्रकार से जो योग साधन में संलग्न रहता है और उसी के द्वारा जिसके समस्त प्राचीन पाप नष्ट हो चुके हैं, वह ब्रह्म-संस्पर्श को- ब्रह्मानुभवरूप अत्यन्त-अपरिमित सुख को सुख से- अनायास ही सदा भोगता है।। 28।।

अथ योगविपाकदशा चतुष्प्रकारा उच्यते- अब चार प्रकार की योग की विपाकदशा बतलायी जाती है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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