श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत: ।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते ॥22॥
और जिस योग को पाकर उससे अधिक और कोई लाभ नहीं समझता और जिसमें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं किया जा सकता।। 22।।
यं योगं लब्ध्वा योगाद् विरतः तम् एव काङ्क्षमाणो न अपरं लाभं मन्यते, यस्मिन् च योगे स्थितः अविरतः अपि गुणवत्पुत्रवियोगादिना गुरुणा अपि दुःखेन न विचाल्यते।। 22।।
जिस योग को प्राप्त करके योग से निवृत्त होने पर योगी फिर उसी की आकाङ्क्षा करता है और दूसरे (किसी) लाभ को (उससे अधिक) नहीं मानता और जिस योग में स्थित योगी अविरत स्थिति में गुणवान् पुत्र के वियोग आदि गुरुतर दुःख के द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता।।22।।
तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥23॥
उस दुःख-संयोग के वियोग को ‘योग’ नाम वाला जाने। वह योग निश्चयपूर्वक हर्षित चित्त से किये जाने योग्य है।। 23।।
तं दुःखसंयोगवियोगं दुःख संयोग प्रत्यनीकाकारं योगशब्दाभिधेयं ज्ञानं विद्यात्, स एवम्भूतो योगः इत्यारम्भदशायां निश्चयेन अनिर्विण्ण चेतसा हृष्टचेतसा योगो योक्तव्यः।।23।।
उस दुःखसंयोग के वियोग को-जो दुःख संयोग (नाश)- के लिये विरोधी सेना के समान है, ऐसे उस ‘योग’ शब्द से कहे जाने वाले ज्ञान को जानना चाहिये। वह योग इस प्रकार का है; इसलिये प्रारम्भिक अवस्था में निश्चयपूर्वक निर्वेदरहित चित्त से करने योग्य है-साधक को हर्षपूर्ण चित्त से उसका अभ्यास करना चाहिये।।23।।
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