श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यतन्नात्मनि तुष्यति ॥20॥
योग के अभ्यास से सर्वथा निःरुद्ध चित्त जिस योग में उपरत हो जाता है और जिस योग में वह आत्मा (मन)-से आत्मा को ही देखता हुआ आत्मा में ही सन्तुष्ट हो जाता है।। 20।।
योगसेवया हेतुना सर्वत्र निरुद्धं चित्तं यत्र योगे उपरमते अतिशयित सुखम् इदम् एव इति रमते, यत्र च योगे आत्मना मनसा आत्मानं पश्चन् अन्यनिरपेक्षम् आत्मनि एव तुष्यति।। 20।।
योग-सेवन रूपी हेतु से सर्वत्र रोका हुआ चित्त जिस योग में उपरत हो जाता है- यही अतिशय सुख है ऐसा मानकर उसमें रम जाता है, तथा जिस योग में योगी आत्मा से- मन से आत्मा का साक्षात्कार करता हुआ अन्य की अपेक्षा (प्रतीक्षा) न करके आत्मा में ही सन्तुष्ट हो जाता है।। 20।।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत: ॥21॥
ऐसा जो इन्द्रियों से अतीत और बुद्धिग्राह्य आत्यन्तिक सुख है (उसको) जिस योग में वह जानता है और जिस योग में स्थित हुआ वह फिर तत्त्व से विचलित नहीं होता।। 21।।
यत्तद् अतीन्द्रियम् आत्मबुद्धयेक ग्राह्यम् आत्यन्तिकं सुखं यत्र च योगे वेत्ति अनुभवति यत्र च योगे स्थितः सुखातिरेकेण तत्त्वतः तद्भावात् न चलति।। 21।।
जो ऐसा अतीन्द्रिय-केवल एक आत्मविषयक बुद्धि से ही ग्रहण होने वाला आत्यन्तिक सुख है, उसे मनुष्य जिस योग में जानता है- अनुभव करता है और जिस योग में स्थित योगी सुख की अधिकता के कारण तत्त्व से-आत्म-स्वरूप से विचलित नहीं होता।। 21।।
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