श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: ।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥16॥
अर्जुन! न अति भोजन करने वाले का, न सर्वथा भोजन न करने वाले का, न अति सोने के स्वभाव वाले का और न अधिक जागने वाले का ही योग (सम्पन्न) होता है।। 16।।
अत्यशनानशने योगविरोधिनी, अतिविहाराविहारौ च तथातिमात्र स्वप्नजागर्ये तथा च अत्यायासानायासौ।। 16।।
अधिक भोजन करना और सर्वथा न करना- ये दोनों ही योग के विरोधी हैं, वैसे ही अधिक विहार करना और सर्वथा न करना, अधिक सोना और अधिक अधिक जागना एवं अधिक परिश्रम करना और सर्वथा न करना- ये सभी योग के विरोधी हैं।। 16।।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ॥17॥
नियमित आहार-विहार वाले का, कर्मों में नियमित चेष्टा करने वाले का और नियमित सोने तथा जागने वाले का दुःखनाशक योग (सम्पन्न) होता है।। 17।।
मिताहारविहारस्य मितायासस्य मितस्वप्नावबोधस्य सकलदुःखहा बन्धनाशनो योगः सम्पन्नो भवति।। 17।।
परिमित आहार-विहार करने वाले का, परिमित परिश्रिम करने वाले का और परिमित सोने-जागने वाले का समस्त दुःखनाशक- बन्धन को काटने वाला योग सम्पन्न होता है।। 17।।
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