श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ॥10॥
चित्त और मन को वश में कर लेने वाला योगी एकान्त में अकेला स्थित होकर तथा आशा और परिग्रह से रहित होकर अपने-आपको निरन्तर (आत्मा में) युक्त करे।। 10।।
योगी उक्तप्रकारकर्मयोगनिष्ठः सततम् अहरहः योगकाले आत्मानं युञ्जीत, आत्मानं युक्तं कुर्वीत; स्व दर्शननिष्ठं कुर्वीत इत्यर्थः। रहसि जनविर्जते निःशब्दे देशे स्थितः, एकाकी तत्रापि न सद्वितीयः, तत्रापि यतचित्तात्मा यतचित्तमनस्कः, निराशीः आत्मव्यतिरिक्ते कृत्स्त्रे वस्तुनि निरपेक्षः, अपरिग्रहः तद्व्यतिरिक्ते कस्मिंश्चिद् अपि ममतारहितः।। 10।।
पूर्वोक्त प्रकार से कर्मयोग में परिनिष्ठित कर्मयोगी को उचित है कि वह एकान्त स्थान में मनुष्य रहित और शब्दरहित देश में, वहाँ भी किसी दूसरे के साथ नहीं, अकेला ही रहकर, तथा यतचितात्मा होकर मन और चित्त को वश में करके, निराशीः- आत्मा के अतिरिक्त समस्त वस्तुओं में अपेक्षारहित, और अपरिग्रही आत्मा से अतिरिक्त किसी भी वस्तु में ममता न रखने वाला होकर सतत- प्रतिदिन योगसाधन के समय आत्मा को युक्त करे अर्थात् अपने-अपको आत्मदर्शन में परिनिष्ठित करे।। 10।।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥11॥
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥
शुद्ध स्थान में न अत्यन्त ऊँचा, न अत्यन्त नीचा अपना स्थिर आसन स्थापित करके उस पर वस्त्र, मृगछाला और कुशा एक के ऊपर एक (बिछाकर) उस आसन पर बैठकर, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर मन को एकाग्र करके आत्मशुद्धि के लिये योग का साधन करे।। 11-12।।
शुचै देशे अशुचिभिः पुरुषैः अनधिष्ठिते अपरिगृहीते च अशुचिभिः वस्तुभिः अस्पृष्टे च पवित्रीभूते देशे दार्वादिनिर्मितं नात्युच्छ्रितं नीतिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् आसनं प्रतिष्ठाप्य तस्मिन् मनःप्रसादकरे सापाश्चये उपविश्व योगैकाग्रम् अव्याकुलम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः सर्वात्मना उपसंहृतचित्तेन्द्रियक्रियः आत्मविशुद्धये बन्धविमुक्तये योगं युञ्ज्यात्, आत्मावलोकनं कुर्वीत।। 11-12।।
शुद्ध स्थान में-जहाँ न तो अशुद्ध पुरुष रहते हों, न उनके द्वारा (वह स्थान) लिया हुआ हो और न अशुद्ध वस्तुओं के द्वारा जो स्पर्श ही किया हुआ हो, ऐसे पवित्र स्थान में जो न बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा ही हो तथा जिस पर वस्त्र, मृगछाला और कुशा एक के ऊपर एक बिछे हुए हों- ऐसे काष्ठ आदि से बने हुए आसन को स्थापित करके (फिर) उस मन को प्रसन्न करने वाले अवलम्बनयुक्त आसन पर बैठकर मन को योग के लिये एकाग्र चंचलता रहित करके यतचित्तेन्द्रियक्रिय होकर- चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को सब प्रकार से रोके हुए आत्मशुद्धि के लिये- उसे बन्धन से मुक्त करने के लिये, योग में युक्त होवे- आत्मसाक्षात्कार (आत्मचिन्तन) करे।। 11-12।।
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