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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
छठा अध्याय
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन: ॥8॥
जिसका आत्मा (मन) ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूटस्थ है, विजितेन्द्रिय है और मिट्टी, पत्थर तथा सुवर्ण को समान समझने वाला है, वह योगी युक्त कहा जाता है।। 8।।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा आत्मस्वरूपविषयेण ज्ञानेन तस्य च प्रकृतिविसजातीयाकारविषयेण विज्ञानेन च तृप्तमनाः, कूटस्थः-देवाद्यवस्थासु अनुवर्तमानः सर्वसाधारणज्ञानैकाकारात्मनि स्थितः, तत्र एव वि जितेन्द्रियः, समलोष्टाश्मकाञ्चन: प्रकृतिविविक्तस्वरूपनिष्ठतया प्राकृतवस्तुविशेषेषु भोग्यत्वाभावात् लोष्टाश्मकाञ्चनेषु समप्रयोजनो यः कर्मयोगी स युक्त इति उच्यते- आत्मावलोकन रूपयोगाभ्यासार्ह उच्यते।। 8।।
जो ज्ञान विज्ञानतृप्तात्मा है- आत्मस्वरूपविषयक ज्ञान से और उसके प्रकृति-विलक्षण आकार-विषयक विज्ञान से, जिसका मन तृप्त है, जो कूटस्थ है- जो देवादि अवस्थाओं में रहता हुआ सर्वसाधारण ज्ञान की एकाकारतारूप आत्मा में स्थित रहता है, तथा इसीलिये जो विजितेन्द्रिय है एवं मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण में समबुद्धि है- प्रकृतिसंसर्ग से रहित शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिति हो जाने के कारण विभिन्न प्राकृत वस्तुओं में भोग्य बुद्धि का अभाव हो जाने से जिसका मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण में एक सा प्रयोजन रह गया है, जो ऐसा कर्मयोगी है, वह युक्त कहलता है- आत्म-साक्षात्काररूप योगाभ्यास का अधिकारी कहा जाता है।। 8।।
तथा च-
वैसे ही-
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥9॥
जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बन्धुओं में तथा साधुओं और पापियों में भी समबुद्धि है, वह अति श्रेष्ठ है।। 9।।
वयोविशेषानंगीकारेण स्वहितैषिणः सुहृदः, सवयसो हितैषिणो मित्राणि, अरयो निमित्ततः अनर्थेच्छवः, उभयहेत्वभावाद् उभयरहिता उदासीनाः, जन्मत एव उभयरहिता मध्यस्थाः, जन्मत एव अनिष्टेच्छवो द्वेष्याः, जन्मत एव हितैषिणो बन्धवः, साधवो धर्मशीलाः, पापाः पापशीलाः, आत्मैकप्रयोजनतया सुहृन्मित्रादिभिः प्रयोजनाभावाद् विरोधाभावाच्च तेषु समबुद्धिः, योगाभ्यासार्हत्वे विशिष्यते।। 9।।
जो अवस्थाविशेष का (छोटे-बडे़ का) विचार न करके स्वाभाविक ही अपने हितैषी हैं वे ‘सुहृद् हैं; जो समान आयुवाले हितैषी हैं वे मित्र हैं; जो किसी निमित्त से अनर्थ (अहित) चाहते हैं वे ‘अरि’ (शत्रु) हैं; हित तथा अहित दोनों का हेतु न होने से जो दोनों भावों से रहित हैं वे ‘उदासीन’ हैं; जो जन्म से ही दोनों भावों से अनिष्ट चाहते हैं वे ‘मध्यस्थ’ हैं; जो जन्म से ही अनिष्ट चाहते हैं वे ‘द्वेष्य’ हैं; जो जन्म से ही हित चाहते हैं वे ‘बन्धु’ हैं; धर्मशील ‘साधु’ हैं और पापशील ‘पापी’ हैं। एकमात्र आत्मा में ही प्रयोजन रह जाने के कारण इन सब सुहृद् मित्रादि से जिसका न तो कोई प्रयोजन रह गया है और न विरोधी ही, इसी से जो उन सब में समबुद्धि है; वह पुरुष योगाभ्यास का श्रेष्ठ अधिकारी समझा जाता है।। 9।।
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