श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥29॥
मुझको यज्ञ- तपों का भोक्ता, सब लोकों का महान् ईश्वर और सब प्राणियों का सुहृद् जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।29।।
ऊँ सत्सदिति श्रीमद्धगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसन्न्यासयोगो
नाम पंचमोऽध्यायः।। 5।।
यज्ञतपसां भोक्तारं सर्वलोकमहेश्वरं सर्वभूतानां सुहृदं मां ज्ञात्वा शान्तिम् ऋच्छति कर्मयोगकरण एव सुखम् ऋच्छति।
मुझको यज्ञ-तपों का भोक्ता, सर्व लोकमहेश्वर और सब भूतों का सुहृद् जानकर मनुष्य शान्ति को पाता है- कर्मयोग के सम्पादन में ही सुख प्राप्त करता है।
सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकेश्वराणाम् अपि ईश्वरम् ‘तमीश्वराणां परमं महेश्वरम्’ [1]इति हि श्रूयते। मां सर्वलोकमहेश्वरं सर्वसुहृदं ज्ञात्वा मदाराधनरूपः कर्मयोग इति सुखेन तत्र प्रवर्तते इत्यर्थः; सुहृदाम् आराधनाय सर्वे प्रवर्तन्ते।। 29।।
यहाँ ‘सर्वलोकमहेश्वर’ का अर्थ समस्त लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर है। ‘उस ईश्वरों के भी परम महेश्वर को’ ऐसी ही श्रुति है। अभिप्राय यह कि मुझे सर्वलोकमहेश्वर और सबका सुहृद् जानकर तथा कर्मयोग को मुझ परमेश्वर की आराधना मानकर मनुष्य सुखपूर्वक उसमें प्रवृत्त हो जाता है; क्योंकि सुहृदों की आराधना (सेवा)-में सब लोग (सहज ही) प्रवृत्त हुआ करते हैं।।29।।
इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्य विरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये पंचमोऽध्यायः।।5।।
इस प्रकार श्रीमान् भगवान् रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य के हिन्दी-भाषानुवाद का पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।।5।।
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