श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 141

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मानिर्वाणं वर्तते विजितात्मनाम् ॥26॥

काम-क्रोध से रहित, यत्नशील, संयमित चित्तवाले एवं विजितात्मा पुरुषों के लिये सब ओर से ब्रह्मनिर्वाण ही (प्राप्त) रहता है।। 26।।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतन शीलानां यतचेतसां विजितमनसां ब्रह्मनिर्वाणम् अभितो वर्तते। एवम्भूतानां हस्तस्थं ब्रह्मनिर्वाणम् इत्यर्थः।। 26।।

जो काम-क्रोध से भलीभाँति छूट गये हैं, यति-यत्नशील हैं, यतचित्त हैं- संयमित मनवाले हैं और विजितात्मा हैं- जीते हुए मनवाले हैं, उनके सब ओर ब्रह्मनिर्वाण रहता है। अभिप्राय यह कि ब्रह्मनिर्वाण ऐसे पुरुषों की हथेली में रहता है।। 26।।

उक्तं कर्मयोगं स्वलक्ष्यभूतयोग शिरस्कम् उपसंहरति-

अपने लक्ष्यभूत योग-शीर्षक उकत कर्मयोग का उपसंहार करते हैं-

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवो: ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥27॥

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: ।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मुक्त एव स: ॥28॥

जी बाह्य विषयों को बाहर करके, नेत्र को भ्रुवों के बीच में स्थित करके नासिका के भीतर विचरने वाले प्राण और अपान को सम करके इन्द्रिय-मन-बुद्धि को वश में कर लेने वाला मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा ही मुक्त है।।27-28।।

बाह्यान् विषयस्पर्शान् बहिः कृत्वा बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वम् उपसंहृत्य योगयोग्यासने ऋजुकाय उपविश्य चक्षुः भु्रवोः अन्तरे नासाग्रे विन्यस्य नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानौ समौ कृत्वा उछ्वासनि: श्वासौ समगती कृत्वा आत्मावलोकनाद् अन्यत्र प्रवृत्त्यनर्हेन्द्रियमनोबुद्धिः तत एव विगतेच्छाभयक्रोधो मोक्षपरायणो मोक्षैकप्रयोजनो मुनिः आत्मावलोकनशीलो यः सदा मुक्त एव; साध्य दशायाम् इव साधनदशायाम् अपि मुक्त एव स इत्यर्थः।।

बाह्य विषय भोगों को बाहर करके समस्त बाह्य इन्द्रिय-व्यापार को समेटकर, योगसाधन के उपयुक्त आसन पर सीधे शरीर से बैठकर, आँखों को भौंहों के बीच में नासिका के अग्रभाग पर लगाकर, नासिका के भीतर विचरने वाले प्राण और अपान को सम करके- उच्छ्वास और निःश्वास की गति को सम करके, जो आत्मसाक्षात्कार के सिवा अन्यत्र कहीं भी न लगने योग्य इन्द्रिय, मन-बुद्धि से युक्त है और इसी कारण जो इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित होकर मोक्षपरायण हो गया है- एकमात्र मोक्ष ही जिसका प्रयोजन रह गया है, ऐसा जो मुनि यानी आत्मदर्शनशील पुरुष है, वह सदा मुक्त ही है, अर्थात् वह साधनदशा में भी सिद्धावस्था की भाँति मुक्त ही है।। 27-28।।

उक्तस्य नित्यनैमित्तिककर्मेतिकर्तव्यताकस्य कर्मयोगस्य योगशिरस्कस्य सुशकताम् आह-

नित्य और नैमित्तिक कर्मों की इतिकर्तव्यताविषयक योगशीर्षक पूर्वोक्त कर्मयोग की सुखसाध्यता बतलाते हैं-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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