श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पहला अध्याय
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर: ॥41॥
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया: ॥42॥
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता: ॥43॥
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥44॥
कुल का नाश होने पर सनातन कुल-परम्परागत धर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश हो जाने पर फिर अधर्म समस्त कुल को सब ओर से दबा लेता है।। 40।।
श्रीकृष्ण! अधर्म के छा जाने पर कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं। वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न हो जाता है।। 41।।
वह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में डालने वाला होता है। अतः उनके कुल में पिण्ड और जलदान की क्रिया (श्राद्ध-तर्पण) लुप्त हो जाने के कारण उनके पितरों का पतन हो जाता है।।42।।
कुलघातियों के इन वर्णसंकरजनित दोषों के कारण सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म सर्वथा नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं ।।43।।
जनार्दन! जिनके कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का अवश्य ही नरक में निवास होता है; ऐसा हमने सुना है।। 44।।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता: ॥45॥
अहो! बड़े शोक की बात है कि हम लोगों ने बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर लिया है, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने ही कुटुम्ब को मारने के लिये उद्यत हुए हैं ।। 45।।
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