श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ॥22॥
विषय और इन्द्रियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दुःख की योनियाँ हैं और आदि-अन्तवाले हैं, इससे अर्जुन! बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।। 22।।
विषयेन्द्रियस्पर्शजा ये भोगाः, दुःखयोनयः ते दुःखोदर्का आद्यन्तवन्तः अल्पकालवर्तिनो हि उपलभ्यन्ते; न तेषु तद्याथात्म्यविद् रमते।। 22।।
विषय और इन्द्रियों के संसर्ग से होने वाले जो भोग हैं, वे दुःख की योनियाँ हैं- भविष्य में दुःखों को उत्पन्न करने वाले हैं और आदि-अन्तवाले हैं। क्योंकि वे अल्प समय तक ही ठहरते देखे जाते हैं; इसलिये उन भोगों के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला पुरुष उनमें नहीं रमता।। 22।।
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ॥23॥
जो शरीर छूटने के पहले यहाँ ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वही मनुष्य युक्त है और वही सुखी है।। 23।।
शरीरविमोक्षणात् प्राग् इह एव साधनानुष्ठानदशायाम् एव आत्मानुभवप्रीत्या कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं निरोद्धंयः शक्रोति स युक्तः आत्मानुभवाय अर्हः। शरीरमोक्षणोत्तर कालम् आत्मानुभवसुखः सम्पत्स्यते ।।23।।
शरीर छूटने से पहले यहीं-साधन करने की दशा में ही जो पुरुष आत्मानुभव की प्रीति के कारण काम-क्रोध के वेग को सहन करने में-रोकने में समर्थ होता है, वह युक्त है-आत्मानुभव का पात्र है। वह शरीर छूटने के उत्तर काल में एकमात्र आत्मानुभवरूप सुख का भागी बनेगा।। 23।।
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