श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 137

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्माणि ते स्थिता: ॥19॥

जिनका मन समता में स्थित है, उनके द्वारा यहीं (साधन दशा में ही) संसार जीत लिया गया है; क्योंकि निर्दोष ब्रह्म सम है, इसलिये वे (समदर्शी) ब्रह्म में स्थित हैं।।19।।

इह एव साधनानुष्ठानदशायाम् एव तैः सर्गो जितः संसारो जितः; येषाम् उक्तरीत्या सर्वेषु आत्मसु साम्ये स्थितं मनः; निर्दोषं हि समं ब्रह्म प्रकृतिसंसर्गदोषवियुक्ततया समम् आत्मवस्तु हि ब्रह्म; आत्मसाम्ये स्थिताः चेद् ब्रह्मणि स्थिता एव ते। ब्रह्मणि स्थितिः एव हि संसारजयः। आत्मसु ज्ञानैकाकारतया साम्यम् एव अनुसन्दधाना मुक्ता एव इत्यर्थः।।19।।

जिनका मन उपर्युक्त रीति के अनुसार सब आत्माओं की समता में स्थित है, उन्होंने यहीं-साधन का अनुष्ठान करते समय ही सर्ग-संसार को जीत लिया; क्योंकि निर्दोष एवं सम (आत्मा) ब्रह्म अर्थात् प्रकृति के संसर्ग रूप दोष से रहित होने के कारण जो आत्मतत्त्व सम है, वही ब्रह्म है; इसलिये यदि वे आत्मसमता में स्थित हैं तो ब्रह्म में ही स्थित हैं। ब्रह्म में स्थित होना ही संसार पर विजय पा लेना है। अभिप्राय यह कि ज्ञान की एकाकारता से समस्त आत्माओं में समता देखने वाले पुरुष मुक्त ही हैं।।19।।

येन प्रकारेण अवस्थितस्य कर्मयोगिनः समदर्शनरूपो ज्ञानविपाको भवति, तं प्रकारम् उपदिशति-

जिस प्रकार से स्थित होने पर कर्मयोगी की समदर्शनरूप ज्ञान की विपाकदशा सिद्ध होती है, उस प्रकार को बतलाते हैं-

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्माणि स्थित: ॥20।

स्थिरबुद्धि, मोह से रहित, ब्रह्मवेत्ता और ब्रह्म में स्थित पुरुष प्रिय (वस्तु)-को प्राप्त होकर हर्ष न करे और अप्रिय को पाकर उद्वेग न करे।।20।।

यादृशदेहस्थस्य यदवस्थस्य प्राचीनकर्मवासनया यत् प्रियं यच्च अप्रियं तद् उभयं प्राप्त हर्षोद्वेगौ न कुर्यात्। कर्मयोगी जिस प्रकार के शरीर में स्थित हो और जिस परिस्थिति में हो उसके अनुसार प्राचीन कर्म-वासना से उसको जो प्रिय और अप्रिय प्राप्त होते हैं, उन दोनों को पाकर उसे हर्ष और उद्वेग नहीं करना चाहिये।

कथम्? स्थिरबुद्धिः- स्थिरे आत्मनि बुद्धिः यस्य स स्थिरबुद्धिः। असम्मूढः- अस्थिरेण शरीरेण स्थिरम् आत्मानम् एकीकृत्य मोहः सम्मोहः, तद्रहितः।

कैसे नहीं करना चाहिये? स्थिर बुद्धि तथा असम्मूढ़ होकर- जिसकी बुद्धि स्थिर आत्मा में स्थित है, वह स्थिरबुद्धि है। और अस्थिर शरीर के साथ स्थिर आत्मा की एकता करने के कारण जो मोह होता है वह सम्मोह है, उससे जो रहित है वह असम्मूढ़ है (ऐसा होकर हर्ष शोक नहीं करना चाहिये)।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
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अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
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अध्याय 17 421
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