श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पहला अध्याय
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ॥36॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव ॥37॥
जनार्दन! इन धृतराष्ट्र पक्षीय लोगों को मारकर हमें क्या लाभ होगा? (बल्कि) इन आततायियों को मारने से हमें पाप ही लगेगा।। 36।।
इसलिये धृतराष्ट्र पक्षीय अपने बान्धवों को मारना हमारे लिये उचित नहीं है। क्योंकि माधव! हम अपने कुटुम्ब को मारकर कैसे सुखी होंगे? ।।37।।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥38॥
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥39॥
यद्यपि जिनका चित्त लोभ के कारण भ्रष्ट हो चुका है ऐसे ये लोग कुलनाशजनित दोष को और मित्र-द्रोह से उत्पन्न पाप को नहीं देख रहे हैं ।। 38।।
परंतु जनार्दन! हम लोगों को, जो कि कुलनाशजन्य दोष को भलीभाँति समझते हैं, इस पाप से बचने का उपाय क्यों नहीं सोचना चाहिये?।। 39।।
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