श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पाँचवाँ अध्याय
सन्न्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगी विशिष्यते ॥2॥
श्रीभगवान बोले- संन्यास (ज्ञानयोग) और कर्मयोग दोनों कल्याण करने वाले हैं; परन्तु उन दोनों में कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है।। 2।।
सन्नायः ज्ञानयोग, कर्मयोगः च ज्ञानयोगशक्तस्य अपि उभौ निरपेक्षौ निःश्रेयसकरौ। तयोः कर्मसन्नायसाद् ज्ञानयोगात् कर्मयोगः एव विशिष्यते ।। 2।।
ज्ञानयोग में समर्थ पुरुष के लिये भी संन्यास-ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों ही एक-दूसरे की अपेक्षा न रखते हुए कल्याण करने वाले हैं। तथापि उनमें कर्मसंन्यास-ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग ही श्रेष्ठ है।। 2।।
कुत इत्यत आह-
ऐसा क्यों है? इस पर कहते हैं-
ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥3॥
महाबाहु अर्जुन! जो न द्वेष करता है और न आकाड्क्षा करता है, वह नित्य संन्यासी ही समझा जाना चाहिये; क्योंकि द्वन्द्व से रहित पुरुष सूख पूर्वक बन्धन से छूट जाता है।।3।।
यः कर्मयोगी तदन्तर्गतात्मानुभवतृप्तः तद्व्यतिरिक्तं किमपि न काङ्क्षति, तत एव किमपि न द्वेष्टि, तत एव द्वन्द्वसहः च; स नित्यसन्न्यासी नित्यजज्ञाननिष्ठ इति ज्ञेय: स हि सुकरकर्मयोगननिष्ठ सुखं बन्धात् प्रमुच्यते।। 3।।
जो कर्मयोगी उस कर्मयोगी के अन्तर्गत रहने वाले आत्मानुभव से तृप्त है और उससे अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु की आकाड्क्षा नहीं करता, इसी कारण किसी से द्वेष नहीं करता, तथा इसी कारण द्वन्द्वों (शीत-उष्ण,सुख-दुःखादि)- को सहन करने में समर्थ है, वह नित्य संन्यासी है- नित्य ज्ञाननिष्ठ है, ऐसा ही जानना चाहिये। क्योंकि सुखसाध्य कर्मयोग में स्थित होने के कारण वह बड़ी आसानी के साथ बन्धन से छूट जाता है।। 3।।
ज्ञानयोगकर्मयोगयोः आत्मप्राप्ति साधनभावे अन्योन्यनैरपेक्ष्यम् आह-
ज्ञानयोग और कर्मयोग आत्मप्राप्ति के सम्पादन में एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते, यह कहते हैं-
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