श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 120

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ॥31॥

यज्ञ से बचे हुए अमृत को खाने वाले (कर्मयोगी) सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। कुरुक्षेत्र अर्जुन! यज्ञरहित पुरुष का यही लोक नहीं है, तब दूसरे (मोक्ष)-की तो बात ही कहाँ?।।31।।

यज्ञशिष्टामृतेन शरीरधारणं कुर्वन्त एव कर्मयोगे व्यापृताः सनातनं च ब्रह्म यान्ति। अयज्ञस्य महायज्ञादि पूर्वकनित्यनैमित्तिककर्मरहितस्य न अयं लोकः न प्राकृतलोकः प्राकृतलोकसम्बन्धिधर्मार्थकामाख्यः पुरुषार्थः न सिध्यति; कुतः इतः अन्यः मोक्षाख्यः पुरुषार्थः। परम पुरुषार्थतया मोक्षस्य प्रस्तुतत्त्वात् तदितरपुरुषार्थः ‘अयं लोकः’ इति निर्दिश्यते स हि प्राकृतः।। 31।।

जो यज्ञ से बचे हुए अमृत को खाकर शरीर धारण करते हैं, वे कर्मयोग में लगे हुए पुरुष ही सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञरहित मनुष्य को महायज्ञादिसहित नित्य-नैमित्तिमक कर्म न करने वाले का यह लोक-प्राकृत (साधारण) लोक भी नहीं मिलता उसके प्राकृतिक लोक से सम्बन्ध रखने वाले धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थ भी सिद्ध नहीं होते, फिर, इनसे भिन्न मोक्षरूप पुरुषार्थ की तो बात ही क्या है? शास्त्रों में मोक्ष को परम पुरुषार्थ बताकर उसकी स्तुति की जाने के कारण उससे अन्य पुरुषार्थों का यहाँ ‘अयं लोकः’ के नाम से निर्देश किया गया है; क्योंकि वे प्राकृत हैं।। 31।।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥32॥

इस तरह बहुत प्रकार के यज्ञ (कर्मयोग) ब्रह्म के मुख में विस्तृत हैं, उन सबको कर्मजन्य जान, ऐसे जानकर तू मुक्त हो जायगा।।32।।

एवं हि बहुप्रकाराः कर्मयोगाः ब्रह्मणो मुखे वितताः, आत्मयाथात्म्या वाप्तिसाधनतया स्थिताः तान् उक्त लक्षणानुक्तभेदान् कर्मयोगान् सर्वान् कर्मजान् विद्धि। अहरहः अनुष्ठीय माननित्यनैमित्तिक कर्मानुष्ठानजान् विद्धि। एवं ज्ञात्वा यथोक्तप्रकारेण अनुष्ठाय विमोक्ष्यसे ।। 32।।

इस तरह बहुत प्रकार के कर्मयोग ब्रह्म के मुख में विस्तृत हैं- आत्मा के यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति के साधनरूप में स्थित हैं। इस प्रकार जिनके लक्षणों और भेदों का वर्णन किया गया है, उन समस्त कर्मयोगों को तू कर्मजनित समझ प्रतिदिन किये जाने वाले नित्य, नैमित्तिक कर्मानुष्ठान से उत्पन्न जान। इस प्रकार जानकर और बतलाये हुए प्रकार से उनका अनुष्ठान करके तू मुक्त हो जायगा।।32।।

अन्तर्गतज्ञानतया कर्मणो ज्ञानाकारत्वम् उक्तम्; तत्र अन्तर्गतज्ञाने कर्मणि ज्ञानांशस्य एव प्राधान्यम् आह-

कर्मों के अन्तर्गत ज्ञान होने के कारण कर्मों को ज्ञानस्वरूप बतलाया गया है। अब यह कहते हैं कि जिनके अन्तर्गत ज्ञान है, उन कर्मों में ज्ञान के अंश की ही प्रधानता है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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