श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 12

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पहला अध्याय

 
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्णं युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥28॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥29॥
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ॥30॥
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥31॥

अर्जुन बोले- श्रीकृष्ण! युद्ध की इच्छा से समुपस्थित इस स्वजन-समुदाय को देखकर मेरे सारे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं, मुख सूखा जा रहा है, मेरे शरीर में कम्प हो रहा है, रोएँ खड़े हो रहे हैं, मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष फिसला जा रहा है और मेरी त्वचा जल रही है। मैं खड़ा रहने में असमर्थ हो रहा हूँ, मेरा मन चक्कर-सा खा रहा है। केशव! मैं सारे लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर मैं किसी प्रकार भी कल्याण नहीं देख रहा हूँ ।। 28-31।।

 
न काड्.क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥32॥
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥33॥
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: ।
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा श्याला: सम्बन्धिनस्तथा ॥34॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपित्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ॥35॥

श्रीकृष्ण! मैं न विजय चाहता हूँ और न राज्य या सुखों को ही। गोविन्द! हमें राज्य, भोग अथवा जीवन से भी क्या प्रयोजन है?।।32 ।।

हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखों की आवश्यकता है वे ही ये गुरुजन, पितामह, पिता (ताऊ चाचा), पुत्र, पौत्र, मामा, श्वसुर, साले तथा अन्यान्य सम्बन्धीगण प्राण और धनका परित्याग करके युद्ध में सज-धजकर खडे़ हैं।। 33-34।।

मधुसूदन! इनके द्वारा मारे जाने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है।।35।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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