श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: ॥28॥
दूसरे यत्नशील और शंसितव्रत (दृढ़ संकल्प वाले) कर्मयोगी द्रव्य-यज्ञ करने वाले, वैसे ही कई (व्रतादिरूप) तप-यज्ञ करने वाले, कई योग (तीर्थ सेवन रूप)- यज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कई स्वाध्याय यज्ञ (वेदाध्ययन) और ज्ञानयज्ञ का अनुष्ठान करने वाले हैं।। 28।।
केचित् कर्मयोगिनो द्रव्ययज्ञाः, न्यायतो द्रव्याणि आदाय देवार्चने प्रयतन्ते, केचित् च दानेषु, केचित् च यागेषु, केचित् च होमेषु, एते सर्वे द्रव्ययज्ञाः।
कितने ही कर्मयोगी द्रव्ययज्ञ करने वाले होते हैं- न्याय से धनोपार्जन करके उसे देवार्चन में लगाने का प्रयत्न करते हैं। कितने ही दान में, कितने ही यज्ञों में और कितने ही होम में द्रव्य लगाने का प्रयत्न किया करते हैं। ये सभी द्रव्ययज्ञ करने वाले हैं।
केचित् तपोयज्ञाः कृच्छ्रचान्द्रायणोप वासादिषु निष्ठां कुर्वन्ति, योगयज्ञाः च अपरे पुण्यतीर्थे पुण्यस्थानप्राप्तिषु निष्ठां कुर्वन्ति। इह योगशब्दः कर्मनिष्ठाभेदप्रकरणात् तद्विषयः।
कितने ही तपयज्ञ करने वाले हैं- कृच्छ्र-चान्द्रायण-उपवासादि में निष्ठा करते हैं। दूसरे कई योगयज्ञ करने वाले हैं- पवित्र तीर्थों में-पवित्र स्थान प्राप्त करने में निष्ठा करते हैं। यहाँ कर्मनिष्ठा के भेद का प्रकरण होने से योग शब्द तीर्थ प्राप्ति के सम्बन्ध में ही प्रयुक्त है।
केचित् स्वाध्यायपराः स्वाध्यायाभ्यासपराः, केचित्तदर्थ ज्ञानाभ्यासपराः यतयः यतनशीलाः, शंसितव्रताः दृढसंकल्पाः।। 28।।
कितने ही स्वाध्याय के अभ्यास में लगे रहते हैं, कितने ही उसके अर्थज्ञान के अभ्यास में नियुक्त रहते हैं। ये सभी यती यत्नशील और शंसितव्रती-दृढ़ संकल्प वाले होते हैं।। 28।।
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