श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥12॥
(लौकि सकाम मनुष्य) कर्मों की सिद्धि चाहते हुए यहाँ (इन्द्रादि) देवताओं को पूजते हैं; क्योंकि मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि शीघ्र होती है।। 12।।
सर्व एव पुरुषाः कर्मणां फलं काङ्क्षमाणा इन्द्रादिदेवता यथाशास्त्रं यजन्ते आराधयन्ति। न तु कश्चिद् अनभिसंहितफल इन्द्रादिदेवतात्मभूतं सर्वयज्ञानां भोक्तारं मां यजते। कुत एतत्? यतः क्षिप्रम् अस्मिन् एव मानुषे लोके कर्मजा पुत्रपश्वन्नाद्या सिद्धिः भवति। मनुष्य लोक शब्दः स्वर्गादिलोकप्रदर्शनार्थः।
सभी मनुष्य कर्मों के फल की इच्छा करते हुए इन्द्रादि देवताओं की शास्त्रविधि से पूजा-आराधना करते हैं। उन इन्द्रादि देवताओं के आत्मारूप समस्त यज्ञों के भोक्ता मुझ परमेश्वर को फलाभिसन्धि से रहित होकर कोई भी नहीं पूजता। ऐसा क्यों होता है? इसलिये कि इस मनुष्य लोक में ही (देवताओं के पूजन से) पुत्र, पशु, अन्न आदि की प्राप्ति रूप कर्मजनित सिद्धि तुरंत प्राप्त हो जाती है। यहाँ ‘मनुष्यलोक’ शब्द स्वर्गादि लोकों का भी उपलक्षण है।
सर्व एव हि लौकिकाः पुरुषा अक्षीणानादिकालप्रवृत्तानन्त पापसञ्चयतया अविवेकिनः क्षिप्रफलाभिकाङक्षिणः, पुत्रपश्वन्नादि स्वार्गाद्यर्थतया सर्वाणि कर्माणि इन्द्रादिदेवताराधनमात्राणि कुर्वते; न तु कश्चित् संसारोद्विग्नहृदयो मुमुक्षुः उक्तलक्षणं कर्मयोगं मदाराधन भूतम् आरभते इत्यर्थः।। 12।।
कहने का अभिप्राय यह है कि अनादिकाल से प्रवृत्त अनन्त पापराशि का नाश न होने के कारण सभी लौकिक मनुष्य विवेकशून्य और तुरंत फल चाहने वाले हो रहे हैं, इसलिये वे पुत्र, पशु, अन्नादि और स्वर्गादि भोगों की इच्छा से अपने सारे कर्म केवल इन्द्रादि देवताओं की आराधना के रूप में ही करते हैं, कोई भी हृदय में संसार से घबड़ाकर मोक्ष की इच्छा से मेरी आराधना रूप उपर्युक्त लक्षणों वाले कर्मयोग का आरम्भ नहीं करता, ऐसा इस प्रसंग का भावार्थ है।।12।।
यथोक्तकर्मयोगारम्भविरोधिपापक्षयहेतुम् आह-
उपर्युक्त कर्मयोगारम्भ के विरोधी पापों के नाश का हेतु बतलाते हैं-
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