श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
चौथा अध्याय
अत्र उच्यते- जानाति एव अयं भगवन्तं वसुदेवतनयं पार्थः। जानतः अपि अजानतः इव पृच्छतः अयम् आशयः-
निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकतानस्य सर्वेश्वरस्य सर्वज्ञस्य सत्य संकल्पस्य च अवाप्तसमस्तकामस्य कर्मपरवशदेवमनुष्यादिसजातीयं जन्म किम् इन्द्रजालादिवत् मिथ्या किं वा सत्यम्? सत्यत्वे च कथं जन्मप्रकारः? किमात्मकः अयं देहः? कश्च जन्महेतुः? कदा च जन्म? किमर्थं वा जन्म? इति परिहार प्रकारेण प्रश्रार्थो विज्ञायते।।4।।
इस पर यहाँ कहते हैं- अर्जुन वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान् जानता था, इसमें कोई सन्देह नहीं है। परन्तु जानते हुए भी अनजान की भाँति जो पूछ रहा है, उसका यह आशय है-
जो समस्त हेय गुणों के विरोधी एकतान अनन्त कल्याणगुणगणसम्पन्न, सर्वज्ञ सर्वेश्वर और सत्यसंकल्प हैं, जिनको समस्त (दिव्य) भोग सब प्रकार से प्राप्त हैं, उन भगवान् का कर्मपरवश देव- मनुष्यादि के सदृश प्रतीत होने वाला जन्म क्या इन्द्रजाल आदि की तरह से मिथ्या है? किं वा सत्य है? यदि सत्य है तो उस जन्म का प्रकार क्या है? उसका यह शरीर कैसा है? उसके जन्म में हेतु क्या है? तथा वह जन्म कब और किस उद्देश्य से होता है? इन सारी बातों का सन्तोषजनक समाधान हो जाय, यही अर्जुन के प्रश्न का अभिप्राय जान पड़ता है।। 4।।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥5॥
श्रीभगवान बोले- अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म बीत चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, परंतप! तू नहीं जानता ।। 5।।
अनेन जन्मनः सत्यत्वम् उक्तम् ‘बहूनि से व्यतीतानि जन्मानि’ इति वचनात् तव च इति दृष्टान्ततया उपादानाच्च।। 5।।
इस श्लोक से जन्म की सत्यता बतलायी गयी है; क्योंकि ‘मेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं’ यह भगवान् का कथन है और तेरे भी (बहुत-से जन्म बीत चुके हैं) यह बात दृष्टान्तरूप से उपस्थित की गयी है।।5।।
आत्मनः अवतारप्रकारं देह याथात्म्यं जन्महेतुं च आह-
अपने अवतार का प्रकार, अवतार शरीर का यथार्थ स्वरूप और अवतार का हेतु बतलाते हैं-
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