श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक। साधक को गहराई से विचार करना चाहिए कि वृत्तियाँ तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं, पर स्वयं (अपना स्वरूप) सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। वृत्तियों में होने वाले परिवर्तन को देखने वाला स्वरूप परिवर्तनरहित हैं। कारण कि परिवर्तनशील नहीं देख सकता, प्रत्युत परिवर्तनरहित ही परिवर्तनशील को देख सकता है। इससे सिद्ध होता है कि स्वरूप वृत्तियों से अलग है। परिवर्तनशील गुणों के साथ अपना संबंध मान लेने से ही गुणों में होने वाली वृत्तियाँ अपने में प्रतीत होती हैं। अतः साधक को आने-जाने वाली वृत्तियों के साथ मिलकर अपने वास्तविक स्वरूप से विचलित नहीं होना चाहिए। चाहे जैसी वृत्तियाँ आएं, उनसे राजी-नाराज नहीं होना चाहिए; उनके साथ अपनी एकता नहीं माननी चाहिए। सदा एकरस रहने वाले गुणों से सर्वथा निर्लिप्त, निर्विकार एवं अविनाशी अपने स्वरूप को न देखकर परिवर्तनशील, विकारी एवं विनाशी वृत्तियों को देखना साधक के लिए महान बाधक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 7।41
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |