श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
गीता में ‘जरामरणमोक्षाय’[1], ‘जन्ममृत्यु-जराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्’[2] और यहाँ ‘जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तः’[3]- इन तीनों जगह बाल्य और युवा-अवस्था का नाम न लेकर ‘जरा’ (वृद्धावस्था) का ही नाम लिया गया है, जबकि शरीर में बाल्य, युवा और वृद्ध- ये तीनों ही अवस्थाएँ होती हैं। इसका कारण यह है कि बाल्य और युवा-अवस्था में मनुष्य अधिक दुःख का अनुभव नहीं करता; क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओं में शरीर में बल रहता है। परंतु वृद्धावस्था में शरीर में बल न रहने से मनुष्य अधिक दुःख का अनुभव करता है। ऐसे ही जब मनुष्य के प्राण छूटते हैं, तब वह भयंकर दुःख का अनुभव करता है। परंतु जो तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है, वह सदा के लिए जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था के दुःखों से मुक्त हो जाता है। इस मनुष्य शरीर में रहते हुए जिसको बोध हो जाता है। उसका फिर जन्म होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हाँ, उसके अपने कहलाने वाले शरीर के रहते हुए वृद्धावस्था और मृत्यु तो आएगी ही, पर उसको वृद्धावस्था और मृत्यु का दुःख नहीं होगा। वर्तमान में शरीर के साथ स्वयं की एकता मानने से ही पुनर्जन्म होता है और शरीर में होने वाले जरा, व्याधि आदि के दुःखों को जीव अपने में मान लेता है। शरीर गुणों के संग से उत्पन्न होता है। देह के उत्पादक गुणों से रहित होने के कारण गुणातीत महापुरुष देह के संबंध से होने वाले सभी दुःखो से मुक्त हो जाता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु से पहले-पहले अपने गुणातीत स्वरूप का अनुभव कर लेना चाहिए। गुणातीत होने से जरा, व्याधि, मृत्यु आदि सब प्रकार के दुःखों से मुक्ति हो जाती है और मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। फिर उसका पुनर्जन्म होता ही नहीं। संबंध- गुणातीत पुरुषं दुःखों से मुक्त होकर अमरता को प्राप्त कर लेता है- ऐसा सुनकर अर्जुन के मन में गुणातीत मनुष्य के लक्षण जानने की जिज्ञासा हुई। अतः वे आगे के श्लोक में भगवान से प्रश्न करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 7:29
- ↑ गीता 13:8
- ↑ गीता 14:20
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