श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
इस श्लोक का निष्कर्ष यह निकला कि सात्त्विक पुरुष के सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाए, पर उसमें उसको दुःख नहीं हो सकता। राजस पुरुष के सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाए, पर उसमें उसको सुख नहीं हो सकता। तामस पुरुष के सामने कैसी ही परिस्थिति आ जाए, पर उसमें उसका विवेक जाग्रत नहीं हो सकता, प्रत्युत उसमें उसकी मूढ़ता ही रहेगी। गुण (भाव) और परिस्थिति तो कर्मों के अनुसार ही बनती है। जब तक गुण (भाव) और कर्मों के साथ संबंध रहता है, तब तक मनुष्य किसी भी परिस्थिति में सुखी नहीं हो सकता। जब गुण और कर्मों के साथ संबंध नहीं रहता, तब मनुष्य किसी भी परिस्थिति में कभी दुःखी नहीं हो सकता और बंधन में भी नहीं पड़ सकता। जन्म के होने में अंतकालीन चिन्तन ही मुख्य होता है और अंतकालीन चिन्तन के मूल में गुणों का बढ़ना होता है तथा गुणों का बढ़ना कर्मों के अनुसार होता है। तात्पर्य है कि मनुष्य का जैसा भाव (गुण) होगा, वैसा वह कर्म करेगा और जैसा कर्म करेगा, वैसा भाव दृढ़ होगा तथा उस भाव के अनुसार अंतिम चिन्तन होगा। अतः आगे जन्म होने में अंतकालीन चिंतन ही मुख्य रहा। चिन्तन के मूल में भाव और भाव के मूल में कर्म रहता है। इस दृष्टि से गति को होने में अंतिम चिंतन, भाव (गुण) और कर्म- ये तीनों कारण हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने गुणों की तात्कालिक वृत्तियों के बढ़ने पर जो गतियाँ होती हैं, उनके मूल में सात्त्विक, राजस और तामस कर्म बताये। अब सात्त्विक, राजस और तामस कर्मों के मूल मे गुणों को बताने के लिए भगवान आगे का श्लोक कहते हैं। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज