श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । अर्थ- हे भरतवंश में श्रेष्ठ अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरंभ, अशांति और स्पृहा- ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं। व्याख्या- ‘लोभः’- निर्वाह की चीजें पास में होने पर भी उनको अधिक बढ़ाने की इच्छा का नाम ‘लोभ’ है। परंतु उन चीजों के स्वाभाविक बढ़ने का नाम लोभ नहीं है। जैसे, कोई खेती करता है और अनाज ज्यादा पैदा हो गया, व्यापार करता है और मुनाफा ज्यादा हो गया, तो इस तरह पदार्थ, धन आदि के स्वाभाविक बढ़ने का नाम लोभ नहीं है और यह बढ़ना दोषी भी नहीं है। ‘प्रवृत्तिः’- कार्यमात्र में लग जाने का नाम ‘प्रवृत्ति’ है। परंतु राग-द्वेषरहित होकर कार्य में लग जाना दोषी नहीं है; क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति तो गुणातीत महापुरुष में भी होती है।[1] रागपूर्वक अर्थात सुख, आराम, धन आदि की इच्छा को लेकर क्रिया में प्रवृत्त हो जाना ही दोषी है। ‘आरंभः कर्मणाम्’- संसार में धनी और बड़ा कहलाने के लिए; मान, आदर, प्रशंसा आदि पाने के लिए नये-नये कर्म करना, नये-नये व्यापार शुरू करना, नयी-नयी फैक्टरियाँ खोलना, नयी-नयी दूकानें खोलना आदि ‘कर्मों का आरंभ’ है। प्रवृत्ति और आरंभ- इन दोनों में अंतर है। परिस्थिति के आने पर किसी कार्य में प्रवृत्ति होती है और किसी कार्य से निवृत्ति होती है। परंतु भोग और संग्रह के उद्देश्य से नये-नये कर्मों को शुरू करना ‘आरंभ’ है। मनुष्य जन्म प्राप्त होने पर केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का ही उद्देश्य रहे, भोग और संग्रह का उद्देश्य बिलकुल न रहे- इसी दृष्टि से भक्तियोग और ज्ञानयोग में ‘सर्वारम्भपरित्यागी’[2] पद से संपूर्ण आरंभों का त्याग करने के लिए कहा गया है। कर्मयोग में कर्मों के आरंभ तो होते हैं, पर वे सभी आरंभ कामना और संकल्प से रहित होते हैं।[3] कर्मयोग में ऐसे आरंभ दोषी भी नहीं है; क्योंकि कर्मयोग में कर्म करने का विधान है और बिना कर्म किए कर्मयोगी योग (समता) पर आरूढ़ नहीं हो सकता।[4] अतः आसक्ति रहित होकर प्राप्त परिस्थिति के अनुसार कर्मों के आरंभ किये जाएं, तो वे आरंभ नहीं है, प्रत्युत प्रवृत्तिमात्र ही हैं; क्योंकि उनसे कर्म करने का राग मिटता है। वे आरंभ निवृत्ति देने वाले होने से दोषी नहीं हैं। ‘अशमः’- अंतःकरण में अशान्ति, हलचल रहने की नाम ‘अशम’ है। जैसी इच्छा करते हैं, वैसी चीजें (धन, संपत्ति, यश, प्रतिष्ठा आदि) जब नहीं मिलती, तब अंतःकरण में अशांति, हलचल होती है। कामना का त्याग करने पर यह अशांति नहीं रहती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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