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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबधांति भारत ।।8।।
अर्थ- हे भरतवंशी अर्जुन! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से अत्पन्न होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है।
व्याख्या- ‘तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्’- सत्त्वगुण और रजोगुण- इन दोनों से तमोगुण को अत्यंत निकृष्ट बताने के लिए यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग हुआ है। यह तमोगुण अज्ञान से अर्थात बेसमझी से, मूर्खता से पैदा होता है और संपूर्ण देहधारियों को मोहित कर देता है अर्थात सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं होने देता। इतना ही नहीं, यह सांसारिक सुख-भोग और संग्रह में भी नहीं लगने देता अर्थात राजस सुख में भी नहीं जाने देता, फिर सात्त्विक सुख की तो बात ही क्या है! वास्तव में तमोगुण के द्वारा मोहित होने की बात केवल मनुष्यों के लिए ही है; क्योंकि दूसरे प्राणी तो स्वाभाविक ही तमोगुण से मोहित हैं। फिर भी यहाँ ‘सर्वदेहिनाम्’ पद देने का तात्पर्य है कि जिन मनुष्यों में सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं है, वे मनुष्य होते हुए भी चौरासी लाख योनियों वाले प्राणियों के समान ही हैं अर्थात जैसे पशु-पक्षी आदि प्राणी खा-पी लेते हैं और सो जाते हैं, ऐसे ही वे मनुष्य भी हैं।
‘प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबंधाति भारत’- यह तमोगुण प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा संपूर्ण देहदारियों को बाँध देता है। ‘प्रमाद’ दो तरह का होता है- (1) करने लायक काम को न करना अर्थात जिस काम से अपना और दुनिया का, अभी और परिणाम में हित होता है, ऐसे कर्तव्य-कर्मों को प्रमाद के कारण न करना; और (2) न करने लायक काम को करना अर्थात जिस काम से अपना और दुनिया का अभी और परिणाम में अहित होता है, ऐसे कर्मों को करना। न करने लायक काम भी दो तरह के होते हैं- 1. व्यर्थ खर्च करना अर्थात बीड़ी-सिगरेट, भांग-गांजा आदि पीने में और नाटक-सिनेमा, खेल आदि देखने में धन खर्च करना; और 2. व्यर्थ क्रिया करना अर्थात ताश-चौपड़ खेलना, खेल-कूद करना, बिना किसी कारण के पशु-पक्षी आदि को कष्ट देना, तंग करना, बिना किसी स्वार्थ के छोटे-छोटे पेड़-पौधों को नष्ट कर देना आदि व्यर्थ क्रियाएँ करना।
‘आलस्य’ भी दो प्रकार का होता है- (1) सोते रहना, निकम्मे बैठे रहना, आवश्यक काम न करना और ऐसा विचार रखना कि फिर कर लेंगे, अभी तो बैठे हैं- इस तरह का आलस्य मनुष्य को बाँधता है; और (2) निद्रा के पहले शरीर भारी हो जाना, वृत्तियों का भारी हो जाना, समझने की शक्ति न रहना- इस तरह का आलस्य दोषी नहीं है; क्योंकि यह आलस्य आता है, मनुष्य करता नहीं।
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