श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । अर्थ- इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्र से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अंतर (विभाग) को तथा कार्य-कारण सहित प्रकृति से स्वयं को अलग जानते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। व्याख्या- [ज्ञानमार्ग विवेक से ही आरंभ होता है और वास्तविक विवेक (बोध) में ही समाप्त होता है। वास्तविक विवेक होने पर प्रकृति से सर्वथा संबंध-विच्छेद होकर स्वतः सिद्ध परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है- इसी बात को यहाँ बताया गया है।] ‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा’- सत्-असत्, नित्य-अनित्य, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अलग-अलग जानने का नाम ‘ज्ञानचक्षु’ (विवेक) है। यह क्षेत्र विकारी है, कभी एकरूप नहीं रहता। यह प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिसमें यह स्थिर रहता हो। परंतु इस क्षेत्र में रहने वाला, इसको जानने वाला क्षेत्रज्ञ सदा एकरूप रहता है। क्षेत्रज्ञ में परिवर्तन न हुआ है, न होगा और न होना संभव ही है। इस तरह जानना, अनुभव करना ही ज्ञानचक्षु से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग को जानना है। ‘भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्’- वास्तविक विवेक अर्थात बोध होने पर भूत और प्रकृति से अर्थात प्रकृति के कार्यमात्र से तथा प्रकृति से संबंध-विच्छेद हो जाता है। प्रकृति से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है। प्रकृति से सर्वथा संबंध-विच्छेद होने पर अर्थात प्रकृति से अपने अलगाव का ठीक अनुभव होने पर साधक परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं। भगवान ने पहले अव्यक्त की उपासना करने वालों को अपनी प्राप्ति बतायी थी- ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’[1], उसी बात को इस अध्याय के अठारहवें श्लोक में ‘मद्भावायोपपद्यते’ पद से, तेईसवें श्लोक में ‘न स भूयोऽभिजायते’ पदों से और यहाँ ‘यान्ति ते परम्’ पदों से कहा है। ज्ञानमार्ग में देहाभिमान ही प्रधान बाधा है। इस बाधा को दूर करने के लिए भगवान ने इसी अध्याय के आरंभ में ‘इदं शरीरम्’ पदों से शरीर (क्षेत्र) से अपनी (क्षेत्रज्ञ की) पृथक्ता का अनुभव करने के लिए कहा, और दूसरे श्लोक में ‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम्’ पद से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के वास्तविक ज्ञान कहा, फिर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की पृथक्ता का कई तरह से वर्णन किया। अब उसी विषय का उपसंहार करते हुए भगवान अंत में कहते हैं कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की पृथक्ता को ठीक-ठीक जान लेने से क्षेत्र के साथ सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है। क्षेत्रज्ञ ने ही परमात्मा से विमुख होकर परमात्मा से भिन्नता मानी है और क्षेत्र के सम्मुख होकर क्षेत्र से एकता मानी है। इसलिए परमात्मा से एकता और क्षेत्र से सर्वथा भिन्नता-दोनों बातों को कहना आवश्यक हो गया। अतः भगवान ने इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि’ पदों से क्षेत्रज्ञ की परमात्मा से एकता बतायी और यहाँ क्षेत्र की समष्टि संसार से एकता बता रहे हैं। दोनों का तात्पर्य क्षेत्रज्ञ और परमात्मा की अभिन्नता बताने में ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 12:4
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