श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
यद्यपि पुरुष अपने को शरीर में स्थित मानने से ही कर्ता और भोक्ता बनता है, तथापि इक्कीसवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि ‘प्रकृति’ में स्थित पुरुष ही भोक्ता बनता है और यहाँ कहते हैं कि ‘शरीर’ में स्थित होने पर भी पुरुष कर्ता-भोक्ता नहीं है। ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति और उसका कार्य शरीर- दोनों एक ही हैं। अतः पुरुष को चाहे प्रकृति में स्थित कहो, चाहे शरीर में स्थित कहो, एक ही बात है। एक शरीर के साथ संबंध हो जाता है। वास्तव में पुरुष का संबंध न तो व्यष्टि शरीर के साथ है और न समष्टि प्रकृति के साथ ही है। अपना संबंध शरीर के साथ मानने से ही वह अपने को कर्ता-भोक्ता मान लेता है। वास्तव में वह न कर्ता है और न भोक्ता है। संबंध- पूर्वश्लोक में कहा गया कि वह पुरुष न करता है और न लिप्त होता है, तो अब प्रश्न होता है कि वह कैसे लिप्त नहीं होता और कैसे नहीं करता? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |