श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । अर्थ- हे कुन्तीनन्दन! यह पुरुष स्वयं अनादि और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है। व्याख्या- ‘अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः’- इसी अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में जिसको अनादि कहा है, उसी को यहाँ भी ‘अनादित्वात्’ पद से अनादि कहा है अर्थात यह पुरुष आदि (आरंभ) से रहित है। अब प्रश्न होता है कि वहाँ तो प्रकृति को भी अनादि कहा है, इसलिए प्रकृति और पुरुष- दोनों में क्या फर्क रहा? इसके उत्तर में भगवान कहते हैं- ‘निर्गुणत्वात्’ अर्थात यह पुरुष गुणों से रहित है। प्रकृति अनादि तो है, पर वह गुणों से रहित नहीं है, प्रत्युत गुणों और विकारों वाली है। उससे सात्त्विक, राजस और तामस- ये तीनों गुण तथा विकार पैदा होते हैं। परंतु पुरुष इन तीनों गुणों और विकारों से सर्वथा रहित (निर्गुण और निर्विकार) है। ऐसा यह पुरुष साक्षात अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है अर्थात यह पुरुष विनाशरहित परम शुद्ध आत्मा है। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’- यह पुरुष शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता है और न किसी कर्म से लिप्त ही होता है। तात्पर्य है कि इस पुरुष (स्वयं) ने न तो पहले किसी भी अवस्था में कुछ किया है; न वर्तमान में कुछ करता है और न आगे ही कुछ कर सकता है अर्थात यह पुरुष सदा से ही प्रकृति से निर्लिप्त, असंग है तथा गुणों से रहित और अविनाशी है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व है ही नहीं। यहाँ ‘शरीरस्थोऽपि’ कहने का तात्पर्य है कि यह पुरुष जिस समय अपने को शरीर में स्थित मानकर अपने को कार्य का कर्ता और सुख-दुःख का भोक्ता मानता है, उस समय भी वास्तव में यह तटस्थ, प्रकाशमात्र ही रहता है। सुख-दुःख का भान इसी से होता है; अतः इसको प्रकाशक कह सकते हैं, पर इसमें प्रकाशक-धर्म नहीं होता है। यहाँ ‘अपि’ पद से ऐसा मालूम होता है कि अनादिकाल से अपने को शरीर में स्थित मानने वाला हरेक (चींटी से ब्रह्मापर्यन्त) प्राणी स्वरूप से सदा ही निर्लिप्त, असंग है। उसकी शरीर के साथ एकता कभी हुई ही नहीं; क्योंकि शरीर तो प्रकृति का कार्य होने से सदा प्रकृति में ही स्थित रहता है और स्वयं परमात्मा का अंश होने से सदा परमात्मा में ही स्थित रहता है। स्वयं परमात्मा से कभी अलग हो सकता ही नहीं। शरीर के साथ एकात्मकता मानने पर भी, शरीर के साथ कितना ही घुल-मिल जाने पर भी, शरीर को ही अपना स्वरूप मानने पर भी उसकी निर्लिप्तता कभी नष्ट नहीं होती, वह स्वरूप से सदा ही निर्लिप्त रहता है। |
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