श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
यह नियम है कि प्रकृति के साथ अपना संबंध मानने के कारण स्वार्थ-बुद्धि, भोग-बुद्धि, सुख-बुद्धि आदि से प्राणियों को अलग-अलग भाव से देखने पर राग-द्वेष पैदा हो जाते हैं। राग होने पर उनमें गुण दिखायी देते हैं और द्वेष होने पर दोष दिखायी देते हैं। इस प्रकार दृष्टि के आगे राग-द्वेष रूप परदा आ जाने से वास्तविकता का अनुभव नहीं होता।
परंतु जब साधक अपने कहलाने वाले स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर सहित संपूर्ण प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश को प्रकृति में ही देखता है तथा अपने में उनका अभाव देखता है, तब उसकी दृष्टि के आगे से राग-द्वेष रूप परदा हट जाता है और उसको स्वतः सिद्ध परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है।
संबंध- बाईसवें श्लोक में जिसको देह से पर बताया है और पीछे के (तीसवें) श्लोक में जिसका ब्रह्म को प्राप्त होना बताया है, उस पुरुष (चेतन) के वास्तविक स्वरूप का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं।
|