श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । अर्थ- जो नष्ट होते हुए संपूर्ण प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और समरूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है। व्याख्या- ‘समं सर्वेषु भूतेषु’- परमात्मा को संपूर्ण प्राणियों में सम कहने का तात्पर्य है कि सभी प्राणी विषम हैं अर्थात स्थावर-जंगम हैं, सात्त्विक-राजस-तामस हैं, आकृति से छोटे-बड़े, लम्बे-चौड़े हैं, नाना वर्ण वाले हैं- इस प्रकार तरह-तरह के जिनते भी प्राणी हैं, उन सब प्राणियों में परमात्मा समरूप से स्थित हैं। वे परमात्मा किसी में छोटे-बड़े, कम-ज्यादा नहीं है। पहले इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने क्षेत्रज्ञ के साथ अपनी एकता बताते हुए कहा था कि तू संपूर्ण प्राणियों में क्षेत्रज्ञ मेरे को समझ, उसी बात को यहाँ कहते हैं कि संपूर्ण प्राणियों में परमात्मा समरूप से स्थित हैं। ‘तिष्ठन्तम्’- संपूर्ण प्राणी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- इन तीन अवस्थाओं में जाते हैं; सर्ग-प्रलय, महासर्ग-महाप्रलय में जाते हैं; ऊँच-नीच गतियों में, योनियों में जाते हैं अर्थात सभी प्राणी किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहते। परंतु परमात्मा उन सब अस्थिर प्राणियों में नित्य-निरंतर एकरूप से स्थित रहते हैं। ‘परमेश्वरम्’- सभी प्राणी अपने को किसी न किसी का ईश्वर अर्थात मालिक मानते ही रहते हैं; परंतु परमात्मा उन सभी प्राणियों के तथा संपूर्ण जड-चेतन संसार के परम ईश्वर हैं। ‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’- प्रतिक्षण विनाश की तरफ जाने वाले प्राणियों में विनाशरहित, सदा एकरूप रहने वाले परमात्मा को जो निर्विकार देखता है, वही वास्तव में सही देखता है। तात्पर्य है कि जो परिवर्तनशील शरीर के साथ अपने-आपको देखता है, उसका देखना सही नहीं है; किंतु जो सदा ज्यों-के-त्यों रहने वाले परमात्मा के साथ अपने-आपको अभिन्नरूप से देखता है, उसका देखना ही सही है। पहले इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने कहा था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही मेरे मत में ज्ञान है, उसी बात को यहाँ कहते हैं कि जो नष्ट होने वाले प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और सम देखता है, उसका देखना (ज्ञान) ही सही है। तात्पर्य है कि जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग में क्षेत्र में तो हरदम परिवर्तन होता है, पर क्षेत्रज्ञ ज्यों-का-त्यों ही रहता है, ऐसे ही संपूर्ण प्राणी उत्पन्न और नष्ट होते हैं, पर परमात्मा सब अवस्थाओं में समानरूप से स्थित रहते हैं। पीछे के (छब्बीसवें) श्लोक में भगवान ने यह बताया कि जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, वे सभी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही पैदा होते हैं। परंतु उन दोनों में क्षेत्र तो किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहता और क्षेत्रज्ञ एक क्षण भी नहीं बदलता। अतः क्षेत्रज्ञ से क्षेत्र का जो निरंतर वियोग रहा है, उसका अनुभव कर ले। इस (सत्ताईसवें) श्लोक में भगवान यह बताते हैं कि उत्पन्न और नष्ट होने वाले संपूर्ण विषय प्राणियों में जो परमात्मा नाशरहित और समारूप से स्थित रहते हैं, उनके साथ अपनी एकता का अनुभव कर ले। संबंध- अब भगवान नष्ट होने वाले संपूर्ण प्राणियों में अविनाशी परमात्मा को देखने का फल बताते हैं। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज