श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
अगर किसी कारणवश साधक की संत-महापुरुष के प्रति अश्रद्धा, दोष-दृष्टि हो जाए तो उनमें साधक को अवगुण-ही-अवगुण दीखेंगे, गुण दीखेंगे ही नहीं। इसका कारण यह है कि महापुरुष गुण-अवगुणों से ऊँचे उठे (गुणातीत) होते हैं; अतः उनमें अश्रद्धा होने पर अपना ही भाव अपने को दीखता है। मनुष्य जिस भाव से देखता है, उसी भाव से उसका संबंध हो जाता है। अवगुण देखने से उसका संबंध अवगुणों से हो जाता है। इसलिए साधक को चाहिए कि वह तत्त्वज्ञ महापुरुष की क्रियाओं पर, उनके आचरणों पर ध्यान न देकर उनके पास तटस्थ होकर रहे। संत-महापुरुष से ज्यादा लाभ वही ले सकता है, जो उनसे किसी प्रकार के सांसारिक व्यवहार का संबंध न रखकर केवल पारमार्थिक (साधन का) संबंध रखता है। दूसरी बात, साधक इस बात की सावधानी रखे कि उसके द्वारा उन महापुरुष की कहीं भी निन्दा न हो। यदि वह उनकी निन्दा करेगा, तो उसकी कहीं भी उन्नति नहीं होगी। संबंध- पूर्वश्लोक में कहा गया है कि श्रुतिपरायण साधक भी मृत्यु को तर जाते हैं, तो अब प्रश्न होता है कि मृत्यु के होने में क्या कारण है? इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज