श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृति च गुणैः सह । अर्थ- इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य अलग-अलग जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता। व्याख्या- ‘य एवं वेत्ति....... न स भूयोऽभिजायते’- पूर्वश्लोक में ‘देहस्मिन् पुरुषः परः’ पदों से पुरुष को देह से पर अर्थात संबंधरहित कहा है, उसी को यहाँ ‘एवम्’ पद से कहते हैं कि जो साधक इस तरह पुरुष को देह से, प्रकृति से पर अर्थात संबंधरहित जान लेता है तथा विकार, कार्य, करण, विषय आदि रूप से जो कुछ भी संसार दीखता है, वह सब प्रकृति और उसके गुणों का कार्य है- ऐसा यथार्थरूप से जान लेता है, वह फिर वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त कर्तव्य कर्म को करता हुआ भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। कारण कि जन्म होने में गुणों का संग ही कारण है।[1] यहाँ ‘सर्वथा वर्तमानोऽपि’ पदों में निषिद्ध आचरण नहीं लेना चाहिए; क्योंकि जो अपने को देह के संबंध से रहित अनुभव करता है और गुणों के सहित प्रकृति को अपने से अलग अनुभव करता है, उसमें असत् वस्तुओं की कामना पैदा हो ही नहीं सकती। कामना न होने से उसके द्वारा निषिद्ध आचरण होना असंभव है; क्योंकि निषिद्ध आचरण के होने में कामना ही हेतु है।[2] भगवान यहाँ साधकों को अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए सावधान करते हैं, जिससे वह अच्छी प्रकार जान ले कि स्वरूप में वस्तुतः कोई भी क्रिया नहीं है। अतः वह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है और कर्ता न होने के कारण वह भोक्ता भी नहीं होता। साधक जब वह अपने आपको अकर्ता जान लेता है, तब उसका कर्तापन का अभिमान स्वतः नष्ट हो जाता है और उसमें क्रिया की फलासक्ति भी नहीं रहती। फिर भी उसके द्वारा शास्त्रविहित क्रियाएँ स्वतः होती रहती हैं। गुणातीत होने के कारण वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने जन्मरहित होने में प्रकृति- पुरुष को यथार्थ जानना कारण बताया। अब यह जिज्ञासा होती है कि क्या जन्म-मरण से रहित होने का और भी कोई उपाय है? इस पर भगवान आगे के दो श्लोकों में चार साधन बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज