श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । यह पुरुष प्रकृति (शरीर) के साथ संबंध रखने से ‘उपद्रष्टा’, उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देने से ‘अनुमन्ता’, अपने को उसका भरण-पोषण करने वाला मानने से ‘भर्ता’, उसके संग से सुख-दुःख भोगने से ‘भोक्ता’, और अपने को उसका स्वामी मानने से ‘महेश्वर’ बन जाता। परंतु स्वरूप से यह पुरुष ‘परमात्मा’ कहा जाता है। यह देह में रहता हुआ भी देह से परे (संबंध-रहित) ही है। व्याख्या- ‘उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः’- यह पुरुष स्वरूप से नित्य है, सब जगह परिपूर्ण है, स्थिर है, अचल है, सदा रहने वाला है।[1] ऐसा होता हुआ भी जब यह प्रकृति और उसके कार्य शरीर की तरफ दृष्टि डालता है अर्थात उनके साथ अपना संबंध मानता है, तब उसकी ‘उपद्रष्टा’ संज्ञा हो जाती है। यह हरेक कार्य के करने में सम्मति, अनुमति देता है। अतः इसका नाम ‘अनुमन्ता’ है। ‘परमात्मेतित चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः’- पुरुष सर्वोत्कृष्ट है, परम आत्मा है, इसलिए शास्त्रों में इसको ‘परमात्मा’ नाम से कहा गया है। यह देह में रहता हुआ भी देह के संबंध से स्वतः रहित है। आगे इसी अध्याय के इकतीसवें श्लोक में इसके विषय में कहा गया है। यह देह में रहता हुआ भी देह के संबंध से स्वतः रहित है। आगे इसी अध्याय के इकतीसवें श्लोक में इसके विषय में कहा गया है कि यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है। इस श्लोक में एक ही तत्त्व को भिन्न-भिन्न उपाधियों के संबंध से ‘उपद्रष्टा’ आदि पदों से संबोधित किया गया है, इसलिए इन पृथक-पृथक नामों से पुरुष के ही स्वरूप का वर्णन समझना चाहिए। वास्तव में उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। जैसे एक ही व्यक्ति देश, काल, वेश, संबंध आदि के अनुसार भिन्न-भिन्न (पिता, चाचा, नाना, भाई आदि) नामों से पुकारा जाता है, ऐसे ही पुरुष भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाने पर भी वास्तव में एक ही है। संबंध- उन्नीसवें श्लोक से बाईसवें श्लोक तक प्रकृति और पुरुष का विवेचन करके अब आगे के श्लोक में उन दोनों का तत्त्व से जानने का फल बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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