श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
जहाँ प्रकृति और पुरुष- दोनों का भेद (विवेक) है, वहाँ ही प्रकृति के साथ तादात्म्य करने का, संबंध जोड़ने का अज्ञान है। इस अज्ञान से ही यह पुरुष स्वयं प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेता है। तादात्म्य कर लेने से यह पुरुष अपने को प्रकृतिस्थ अर्थात प्रकृति (शरीर) में स्थित मान लेता है। प्रकृतिस्थ होने से शरीर में ‘मैं’ और ‘मेरा –पन हो जाता है। यही गुणों का संग है। इस गुणसंग से पुरुष बंध जाता है।[1] गुणों के द्वारा बँध जाने से ही पुरुष की गुणों के अनुसार गति होती है।[2]’ संबंध- उन्नीसवें, बीसवें और इक्कीसवें श्लोक में प्रकृति और पुरुष का वर्णन हुआ। अब आगे के श्लोक में पुरुष का विशेषता से वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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