श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । अर्थ- प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग ही उसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है। व्याख्या- ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो[1] हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’- वास्तव में पुरुष प्रकृति (शरीर) में स्थित है ही नहीं। परंतु जब वह प्रकृति (शरीर) के साथ तादात्म्य करके शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेता है, तब वह प्रकृति में स्थित कहा जाता है। ऐसा प्रकृतिस्थ पुरुष ही (गुणों के द्वारा रचित अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को सुखदायी-दुःखदायी मानकर) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर सुखी होता है और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर दुःखी होता है। यही पुरुष का प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनना है। जैसे मोटर दुर्घटना में मोटर और चालक- दोनों का हाथ रहता है। क्रिया के होने में तो केवल मोटर की ही प्रधानता रहती है, पर दुर्घटना का फल (दंड) मोटर से अपना संबंध जोड़ने वाले चालक (कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। ऐसे ही सांसारिक कार्यों को करने में प्रकृति और पुरुष- दोनों का हाथ रहता है। क्रियाओं के होने में तो केवल शरीर की ही प्रधानता रहती है, पर सुख-दुःखरूप फल शरीर से अपना संबंध जोड़ने वाले पुरुष (कर्ता) को ही भोगना पड़ता है। अगर वह शरीर के साथ अपना संबंध न जोड़े और संपूर्ण क्रियाओं को प्रकृति के द्वारा ही होती हुई माने,[2] तो वह उन क्रियाओं का फल भोगने वाला नहीं बनेगा। ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’- जिन योनियों में सुख की बहुलता होती है, उनको ‘सत्-योनि’ कहते हैं और जिन योनियों में दुःख की बहुलता होती है, उनको ‘असत्-योनि’ कहते हैं। पुरुष का सत्-असत् योनियों में जन्म लेने का कारण गुणों का संग ही है। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। इन तीनों गुणों से ही संपूर्ण पदार्थों और क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। प्रकृतिस्थ पुरुष जब इन गुणों के साथ अपना संबंध मान लेता है, तब ये उसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बन जाते हैं। प्रकृति में स्थित होने से ही पुरुष प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है और यह गुणों का संग, आसक्ति, प्रियता ही पुरुष को ऊँच-नीच योनियों में ले जाने का कारण बनती है। अगर यह प्रकृतिस्थ न हो, प्रकृति (शरीर) में अहंता- ममता न करे, अपने स्वरूप में स्थित रहे, तो यह पुरुष सुख-दुःख का भोक्ता कभी नहीं बनता, प्रत्युत सुख-दुःख में सम हो जाता है, स्वस्थ हो जाता है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ पुरुष को ‘प्रकृतिस्थ’ कहने का तात्पर्य ‘शरीरस्थ’ कहना ही है। उन्नीसवें श्लोक से प्रकृति- पुरुष का प्रकरण चल रहा है, इसीलिए यहाँ पुरुष को प्रकृतिस्थ कहा गया है। वास्तव में पुरुष प्रकृतिस्थ अथवा शरीरस्थ नहीं है। अपने को स्वस्थ न मानने से अर्थात ‘स्व’ में अपनी स्थिति का अनुभव न करने से ही वह अपने को शरीरस्थ मानता है।
- ↑ गीता 13:29
- ↑ गीता 14:24
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