श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
सुख-दुःख का परिणाम चेतन पर होता है, तभी वह सुख-दुःख से मुक्ति चाहता है। अगर वह सुखी-दुःखी न हो, तो उसमें मुक्ति की इच्छा हो ही नहीं सकती। मुक्ति की इच्छा जड के संबंध से ही होती है; क्योंकि जड को स्वीकार करने से ही बंधन हुआ है। जो अपने को सुखी-दुःखी मानता है, वही सुख-दुःख रूप विकार से अपनी मुक्ति चाहता है और उसी की मुक्ति होती है। तात्पर्य है कि तादात्म्य में मुक्ति (कल्याण) की इच्छा में चेतन की मुख्यता और भोगों की इच्छा में जड की मुख्यता होती है, इसलिए अंत कल्याण का भागी चेतन ही होता है, जड नहीं। विकृति मात्र जड में ही होती है, चेतन में नहीं। अतः वास्तव में सुखी-दुःखी ‘होना’ चेतन का धर्म नहीं है, प्रत्युत जड के संग से अपने को सुखी-दुःखी ‘मानना’ ज्ञाता चेतन का स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखी-दुःखी होता नहीं, प्रत्युत (सुखाकार-दुःखाकार वृत्ति से मिलकर) अपने को सुखी-दुःखी मान लेता है। चेतन में एक-दूसरे से विरुद्ध सुख-दुःखरूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं? दो रूप परिवर्तनशील प्रकृति में ही हो सकते हैं। जो परिवर्तनशील नहीं है, उसके दो रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य यह है कि सब विकार परिवर्तनशील में ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं ज्यों-का-त्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृति के संग से उसके विकारों को अपने में आरोपित करता रहता है। यह सबका अनुभव भी है कि हम सुख में दूसरे तथा दुःख में दूसरे नहीं हो जाते। सुख और दुःख दोनों अलग-अलग हैं, पर हम एक ही रहते हैं; दोनों अलग-अलग हैं, पर हम एक ही रहते हैं; इसीलिए कभी सुखी होते हैं और कभी दुःखी होते हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने पुरुष को सुख-दुःख के भोगने में हेतु बताया। इस पर प्रश्न होता है कि कौन-सा पुरुष सुख-दुःख का भोक्ता बनता है? इसका उत्तर अब भगवान आगे के श्लोक में देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 13:21
- ↑ आत्मानं चेद् विजानीयादयमस्मीति पूरषः। किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् ।। (बृहदरण्यक 4।4।12)
‘यदि पुरुष आत्मा को ‘मैं यही हूँ’ इस प्रकार विशेष रूप से जान जाए, तो फिर क्या इच्छा करता हुआ और किस कामना से शरीर के ज्वर- (ताप) से अनुतप्त हो?’
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