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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
उस परमात्मा का अपने हृदय में अनुभव करने का उपाय है-
- मनुष्य हरेक विषय को जानता है तो उस जानकारी में सत् और असत्- ये दोनों रहते हैं। इन दोनों का विभाग करने के लिए साधक यह अनुभव करे कि मेरी जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और बालकपन, जवानी, बुढ़ापा आदि अवस्थाएँ तो भिन्न-भिन्न हुईं, पर मैं एक रहा। सुखदायी-दुःखदायी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आयीं और चली गयीं, पर उनमें मैं एक ही रहा। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि का संयोग-वियोग हुआ, पर उनमें भी मैं एक ही रहा। तात्पर्य यह हुआ कि अवस्थाएँ, परिस्थितियाँ, संयोग-वियोग तो भिन्न-भिन्न (तरह-तरह के) हुए, पर उन सबमें जो एक ही रहा है, भिन्न-भिन्न नहीं हुआ, उसका (उन सबसे अलग करके) अनुभव करे। ऐसा करने से जो सबके हृदय में विराजमान है, उसका अनुभव हो जाएगा; क्योंकि यह स्वयं परमात्मा से अभिन्न है।
- जैसे अत्यंत भूखा अन्न के बिना और अत्यंत प्यासा जल के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही उस परमात्मा के बिना रह नहीं सके, बेचैन हो जाए। उसके बिना न भूख लगे, न प्यास लगे और न नींद आये। उस परमात्मा के सिवाय और कहीं वृत्ति जाए ही नहीं। इस तरह परमात्मा को पाने के लिए व्याकुल हो जाए तो अपने हृदय में उस परमात्मा का अनुभव हो जाएगा।
इस प्रकार एक बार हृदय में परमात्मा का अनुभव हो जाने पर साधक को ‘सब जगह परमात्मा ही है’- ऐसा अनुभव हो जाता है। यही वास्तविक अनुभव है।
संबंध- पहले श्लोक से सत्रहवें श्लोक तक क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय का जो वर्णन हुआ है, अब आगे के श्लोक में फलसहित उसका उपसंहार करते हैं।
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