श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
उस परमात्मतत्त्व को ‘ज्ञेय’[1] भी कहा है और ‘अविज्ञेय’ भी कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयं के द्वारा ही जाना जा सकता है, इसलिए वह ‘ज्ञेय’ है; और वह इंद्रियाँ, मन, बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, इसलिए वह ‘अविज्ञेय’ है। सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा को जानने के लिए यह आवश्यक है कि साधक परमात्मा को सर्वत्र परिपूर्ण मान ले। ऐसा मानना भी जानने की तरह ही है जैसे (बोध होने पर) ज्ञान (जानने) को कोई मिटा नहीं सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है’ इस मान्यता (मानने) को कोई मिटा नहीं सकता। जब सांसारिक मान्यताओं- ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं साधु हूँ’ आदि को (जो कि अवास्तविक हैं) कोई मिटा नहीं सकता तब पारमार्थिक मान्यताओं को (जो कि वास्तविक है) कौन मिटा सकता है? तात्पर्य यह है कि दृढ़तापूर्वक मानना भी एक साधन है। जानने की तरह मानने की भी बहुत महिमा है। ‘परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है’- ऐसा दृढ़तापूर्वक मान लेने पर यह मान्यता मान्यता-रूप से नहीं रहेगी, प्रत्युत इंद्रियाँ, मन, बुद्धि से परे जो अत्यंत सूक्ष्म परमात्मा हैं उनका अनुभव हो जाएगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 13।12,17
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज