श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । अर्थ- वे (परमात्मा) संपूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और संपूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं; आसक्ति रहित हैं और संपूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं; तथा गुणों से रहित हैं और संपूर्ण गुणों के भोक्ता हैं। व्याख्या- ‘सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्’- पहले परमात्मा की शक्ति प्रकृति है। प्रकृति का कार्य महत्त्व, महत्त्व का कार्य अहंकार, अहंकार का कार्य पञ्चमहाभूत, पञ्चमहाभूतों का कार्य मन एवं दस इंद्रियाँ और दस इंद्रियों का कार्य पाँच विषय- ये सभी प्रकृति के कार्य हैं। परमात्मा प्रकृति और उसके कार्य से अतीत हैं। वे चाहे सगुण हों या निर्गुण, साकार हों या निराकार, सदा प्रकृति से अतीत ही रहते हैं। वे अवतार लेते हैं, तो भी प्रकृति से अतीत ही रहते हैं। अवतार के समय वे प्रकृति को अपने वश में करके प्रकट होते हैं। जो अपने को गुणों में लिप्त, गुणों से बँधा हुआ मानकर जन्मता-मरता था, बद्ध जीव भी जब परमात्मा को प्राप्त होने पर गुणातीत (गुणों से रहित) कहा जाता है, तो फिर परमात्मा गुणों में बद्ध कैसे हो सकते हैं? वे तो सदा ही गुणों से अतीत (रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियों से रहित हैं अर्थात संसारी जीवों की तरह हाथ, पैर, नेत्र, सिर, मुख, कान आदि इन्द्रियों से युक्त नहीं है; किंतु उन-उन इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में सर्वथा समर्थ हैं।[1] जैसे वे कानों से रहित होने पर भी भक्तों की पुकार सुन लेते हैं, त्वचा से रहित होने पर भी भक्तों का आलिंगन करते हैं, नेत्रों से रहित होने पर भी प्राणिमात्र को निरंतर देखते रहते हैं, रसना से रहित होने पर भी भक्तों के द्वारा लगाये हुए भोग का आस्वादन करते हैं, आदि-आदि। इस तरह ज्ञानेन्द्रियों से रहित होने पर भी परमात्मा शब्द, स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वे वाणी से रहित होने पर भी अपने प्यारे भक्तों से बातें करते हैं, चरणों से रहित होने पर भी भक्त के पुकारने पर दौड़कर चले आते हैं, हाथों से रहित होने पर भी भक्त के दिए हुए उपहार को ग्रहण करते हैं, आदि-आदि। इस तरह कर्मेन्द्रियों से रहित होने पर भी परमात्मा कर्मेन्द्रियों का सब कार्य करते हैं। यह इंद्रियों से रहित होने पर भी भगवान का इन्द्रियों के विषयों का प्रकाशित करना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3।19)
‘वे परमात्मा हाथ-पैरों से रहित होने पर भी ग्रहण करने में समर्थ तथा वेगपूर्ण चलने वाले हैं। वे नेत्रों के बिना ही देखते हैं और कानों के बिना सुनते हैं।’
(2) बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु असेषा ।। (मानस 1।118।3-4)
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