श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
शरीर आदि जड पदार्थों के साथ अपना संबंध मानने से, उनको महत्त्व देने से, उनका आश्रय लेने से ही संपूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं- ‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति।’ परमात्मा का स्वरूप अथवा उसका ही अंश होने के कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है- ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’।[3] यही कारण है कि जीवात्मा को दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते; क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किए दोषों के कारण सदा दुःख पाता रहता है। अतः भगवान जन्म, मृत्यु आदि के दुःखरूप दोषों के मूल कारण देहाभिमान को विचारपूर्वक मिटाने के लिए कह रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 13:21
- ↑ गीता 8:15
- ↑ मानस 7।117।1
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