श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
विशेष बात शिष्य का कर्तव्य है- गुरु की सेवा करना। अगर शिष्य अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करे तो उसका संसार से संबंध-विच्छेद हो जाता है और वह गुरु-तत्त्व के साथ एक हो जाता है अर्थात उसमें गुरुत्व आ जाता है। संसार से संबंध-विच्छेद होने पर मुक्ति और गुरु-तत्त्व से एक होने पर भक्ति प्राप्त होती है। शिष्य में गुरुत्व आने से उसमें शिष्यत्व नहीं रहता। उस पर शास्त्र आदि का शासन नहीं रहता। अगर शिष्य अपने कर्तव्य का पालन न करे तो उसका नाम तो शिष्य रहेगा, पर उसमें शिष्यत्व नहीं रहेगा। शिष्यत्व न रहने से उसका संसार से संबंध-विच्छेद नहीं होगा और उसमें गुरुत्व भी नहीं आएगा। अतः उसमें संसार की दासता रहेगी। गुरु केवल मेरा ही कल्याण करे- ऐसा भाव रखना भी शिष्य के लिए बंधन है। शिष्य को चाहिए कि वह अपने लिए कुछ भी न चाहकर सर्वथा गुरु के समर्पित हो जाए, उनकी मरजी में ही अपनी मरजी मिला दे। गुरु का कर्तव्य है- शिष्य का कल्याण करना। अगर गुरु अपने कर्तव्य का पालन न करे तो उसका नाम तो गुरु रहेगा, अपने कर्तव्य का पालन न करे तो उसका नाम तो गुरु रहेगा, पर उसमें गुरुत्व नहीं रहेगा। गुरुत्व न रहने से उसमें शिष्य का दासत्त्व रहेगा। जब तक गुरु शिष्य से कुछ भी (धन, मान, बड़ाई आदि) चाहता है, तब तक उसमें गुरुत्व न रहकर शिष्य की दासता रहती है। ‘शौचम्’- बाहर-भीतर की शुद्धि का नाम शौच है। जल, मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि होती है और दया, क्षमा, उदारता आदि से अंतःकरण की शुद्धि होती है। उपाय- शरीर बना ही ऐसे पदार्थों से है कि इसको चाहे जितना शुद्ध करते रहें, यह अशुद्ध ही रहता है। इससे बार-बार अशुद्धि ही निकलती रहती है। अतः इसको बार-बार शुद्ध करते-करते ही इसका वास्तविक अशुद्धि का ज्ञान होता है, जिससे शरीर से अरुचि (उपरामता) हो जाती है। वर्ण, आश्रम आदि के अनुसार सच्चाई के साथ धन का उपार्जन करना, झूठ, कपट आदि न करना; पराया हक न आने देना; खान-पान में पवित्र चीजें काम में लाना आदि से अंतःकरण की शुद्धि होती है। |
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- ↑ इस विषय में किसी ने कहा है- न कुछ हम हँस के सीखे हैं, न कुछ हम रोके सीखे हैं। जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं, किसी के होके सीखे हैं।
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