श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
‘अदम्भित्वम्’- दम्भ नाम दिखावटीपन का है। लोग हमारे में अच्छे गुण देखेंगे तो वे हमारा आदर करेंगे, हमें माला पहनाएँगे, हमारी पूजा करेंगे, हमें ऊँचे आसन पर बैठायेंगे आदि को लेकर अपने में वैसा गुण न होने पर भी गुण दिखाना, अपने में गुण कम होने पर भी उसे बाहर से ज्यादा प्रकट करना- यह सब दम्भ है। अपने में सदाचार है, शुद्धि है, पवित्रता है, पर अगर लोगों के सामने हम पवित्रता रखेंगे तो वे हमारी हँसी उड़ायेंगे, हमारी निन्दा करेंगे- ऐसा सोचकर अपनी पवित्रता छोड़ देना और सामने वाले की तरह बन जाना भी दम्भ है। जैसे, आजकल विवाह आदि के अवसरों पर, क्लबों-होटलों के स्वागत-समारोहों में अथवा वायुयान आदि पर यात्रा करते समय पवित्र आचरण वाले सज्जन भी मान-सत्कार आदि के लिए अपवित्र खाद्य पदार्थ लेते देखे जाते हैं। यह भी दम्भ ही है। इसी तरह दुराचारी पुरुष भी अच्छे लोगों के समुदाय में आने पर मान, सत्कार, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति की इच्छा से अपने को बाहर से धर्मात्मा, भक्त, सेवक, दानी आदि प्रकट करने लगते हैं, तो यह भी दम्भ ही है। कोई साधक एकान्त में बंद, कमरे में बैठकर जप, ध्यान, चिन्तन कर रहा है और साथ में आलस्य, नींद भी ले रहा है। परंतु जब बाहर से उस पर श्रद्धा, पूज्यभाव रखने वाले आदमी की आवाज आती है, तब उस आवाज को सुनते ही वह सावधान होकर जप-ध्यान करने लग जाता है और उसके नींद-आलस्य भाग जाते हैं। यह भी एक सूक्ष्म दम्भ है। इसमें भी देखा जाए तो आवाज सुनकर सावधान हो जाना कोई दोष नहीं है, पर उसमें जो दिखावटीपन का भाव आ जाता है कि यह आदमी मेरे में अश्रद्धा न कर ले, यह भाव आना दोष है। इस भाव के स्थान पर ऐसा भाव आना चाहिए कि भगवान ने बड़ा अच्छा किया कि मेरे को सावधान करके जप-ध्यान में लगा दिया। इन सब प्रकार के दम्भों का अभाव होना ‘अदम्भित्व’ है। ‘उपाय’- साधक को अपना उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्ति का ही रखना चाहिए, लोगों को दिखाने का किञ्चिन्मात्र भी नहीं। अगर उसमें दिखावटीपन आ जाएगा तो उसके साधन में शिथिलता आ जाएगी, जिससे उद्देश्य की सिद्धि में बाधा लग जाएगी। अतः उसको कोई अच्छा, बुरा, ऊँच, नीच जो कुछ भी समझे, इसकी तरफ खयाल न करके वह अपने साधन में लगा रहे। ऐसी सावधानी रखने से दम्भ मिट जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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