श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
जीवन्मुक्त महापुरुष ‘संघात’ अर्थात शरीर से किञ्चिन्मात्र भी मैं- मेरेपन का संबंध न रहने के कारण उसका कहा जाने वाला शरीर यद्यपि महान पवित्र हो जाता है, तथापि प्रारब्ध के अनुसार उसका यह शरीर रहता ही है। जब तक शरीर रहता है, तब तक ‘चेतन’ (प्राणशक्ति) भी रहती है। परिश्रम होने पर उसमें चञ्चलता आती है, नहीं तो वह शान्त रहती है। साधनावस्था में सात्त्विक की ‘धृति’ थी, वह बोध होने पर भी रहती है। परंतु अंतःकरण से तादात्म्य न रहने से तत्त्वज्ञ महापुरुष का ‘चेतना’ और ‘धृति’ –रूप विकारों से कोई संबंध नहीं रहता। तात्पर्य यह हुआ कि शरीर के साथ तादात्म्य होने से जो विकार होते हैं, वे विकार बोध होने पर नहीं होते। संघात, चेतना और धृति-रूप विकारों के रहने पर भी उनका स्वयं पर कुछ भी असर नहीं पड़ता। संबंधः- शरीर के साथ तादात्म्य कर लेने से ही इच्छा, द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं और उन विकारों का स्वयं पर असर पड़ता है। इसलिए भगवान शरीर के साथ किए हुए तादात्म्य को मिटाने के लिए आवश्यक बीस साधनों का ‘ज्ञान’ के नाम से आगे के पाँच श्लोकों में वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ज्ञान किसी का भी दोषी नहीं होता; जैसे- भोजन करते समय जीभ में स्वाद का ज्ञान होना दोष नहीं है, प्रत्युत भोजन के पदार्थों में राग या द्वेष होना दोष है।
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